________________ [उत्तराध्ययनसूत्र होना दुर्लभ है / क्योंकि अनेक व्यक्ति विकलेन्द्रिय (इन्द्रियहीन) देखे जाते हैं / अतः गौतम ! क्षण भर भी प्रमाद मत करो। 18. अहीणचिन्दियत्तं पि से लहे उत्तमधम्मसुई हु दुल्लहा / कुतिस्थिनिसेवए जणे समयं गोयम ! मा पमायए / [18] अविकल (पूर्ण) पंचेन्द्रियों के प्राप्त होने पर भी उत्तम धर्म का श्रवण और भी दुर्लभ है; क्योंकि बहुत-से लोग कुतीथिकों के उपासक हो जाते हैं। अतः हे गौतम ! क्षणमात्र का भी प्रमाद मत करो। 19. लखूण वि उत्तमं सुई सद्दहणा पुणरावि दुल्लहा। मिच्छत्तनिसेवए जणे समयं गोयम ! मा पमायए। [16] उत्तमधर्म-विषयक श्रवण (श्रुति) प्राप्त होने पर भी उस पर श्रद्धा होना और भी दुर्लभ है, (क्योंकि) बहुत-से लोग मिथ्यात्व के सेवन करने वाले होते हैं / अतः गौतम ! समयमात्र का भी प्रमाद मत करो। 20. धम्म पि हु सद्दहन्तया दुल्लहया काएण फासया। इह कामगुणेहि मुच्छिया समयं गोयम ! मा पमायए / [20] (उत्तम) धर्म पर श्रद्धा होने पर भी उसका काया से स्पर्श (आचरण) करने वाले अति दुर्लभ हैं, क्योंकि इस जगत् में बहुत-से धर्मश्रद्धालु जन शब्दादि कामभोगों में मूच्छित (प्रासक्त) होते हैं / अतः गौतम ! समयमात्र का भी प्रमाद मत करो। विवेचन-मनुष्यजन्मप्राप्ति के बाद भी आर्यत्व, पञ्चेन्द्रियों की पूर्णता, उत्तम-धर्म-श्रवण, श्रद्धा और तदनुरूप धर्म का प्राचरण उत्तरोत्तर दुर्लभ हैं। दुर्लभता की इन घाटियों को पार कर लेने पर भी अर्थात्--उक्त सभी दुर्लभ बातों का संयोग मिलने पर भी अब क्षणभर का भी प्रमाद करना जरा भी हितावह नहीं है।' आरियत्तणं आर्यत्वं : दो अर्थ-(१) बृहद्वृत्ति के अनुसार-मगध आदि प्रार्य देशों में आर्यकुल में उत्पत्तिरूप आर्यत्व, (2) जो हेय आचार-विचार से दूर हों, वे आर्य हैं, अथवा जो गुणों अथवा गुणवानों के द्वारा माने जाते हैं, वे आर्य हैं। आर्य के फिर क्षेत्र, जाति, कुल, कर्म, शिल्प, भाषा, चारित्र और दर्शन के भेद से 8 भेद हैं; अनेक उपभेद हैं / यहाँ क्षेत्रार्य विवक्षित है। जिस देश में धर्म, अधर्म, भक्ष्य-अभक्ष्य, गम्य-अगम्य, जीव-अजीव आदि का विचार होता है, वह प्रार्यदेश दसुमा-दस्यवः-दस्यु शब्द चोर, आतंकवादी, लुटेरे, डाकू आदि अर्थों में प्रसिद्ध है / देश की सीमा पर रहने वाले चोर भी दस्यु कहलाते हैं / 1. उत्तरा. मूल अ. 10, गा. 16 से 20 2. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र 337 (ख) राजवातिक 3136 / 1 / 200 श्र. 3115, पृ. 93 (ग) तत्वार्थ., (पं. सुखलालजी) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org