________________ 144] [उत्तराध्ययनसूत्र 19. एयमढें निसामित्ता हेउकारण-चोइओ / तओ नमी रायरिसी देविन्दं इणमब्बवी--॥ [16] इस अर्थ को सुनकर हेतु और कारण से प्रेरित हुए नमि राजर्षि ने देवेन्द्र को यह कहा 20. 'सद्ध नगरं किच्चा तवसंवरमग्गलं। खन्ति निउणयागारं तिगुत्तं दुप्पधंसयं / / [20] (जो मुनि) श्रद्धा को नगर, तप और संवर को अर्गला, क्षमा को (शत्रु से रक्षण में) निपुण (सुदृढ़) प्राकार (दुर्ग) को (बुर्ज, खाई और शतघ्नीरूप) त्रिगुप्ति (मन-वचन-काया की गुप्ति) से सुरक्षित एवं अपराजेय बना कर तथा--- 21. धणु परक्कम किच्चा जीवं च ईरियं सया। धिइंच केयणं किच्चा सच्चेण पलिमन्थए / [21] (आत्मवीर्य के उल्लासरूप) पराक्रम को धनुष बनाकर, ईर्यासमिति (उपलक्षण से अन्य समितियों) को धनुष की प्रत्यंचा (डोर या जीवा) तथा धृति को उसकी मूठ (केतन) बना कर सत्य (स्नायुरूप मनःसत्यादि) से उसे बांधे; 22. तवनारायजुत्तेण भेत्तूणं कम्मकंचुयं / मुणी विग्यसंगामो भवाओ परिमुच्चए / ' [22] तपरूपी बाणों से युक्त (पूर्वोक्त) धनुष से कर्मरूपी कवच को भेद कर (जीतने योग्य कर्मों को अन्तर्युद्ध में जीत कर) संग्राम से विरत मुनि भव से परिमुक्त हो जाता है / विवेचन-इन्द्र के प्रश्न में हेतु और कारण आप क्षत्रिय होने से नगररक्षक हैं, भरत आदि के समान; यह हेतु है / नगर रक्षा करने से ही आप में क्षत्रियत्व घटित हो सकता है, यह कारण है। प्रस्तुत गाथा में 'क्षत्रिय' सम्बोधन से हेतु उपलक्षित किया गया है / प्राशय यह है कि आप क्षत्रिय हैं, इसलिए पहले क्षत्रियधर्म (-नगररक्षारूप) का पालन किए बिना आपका प्रवजित होना अनुचित हैं।' नमि राजर्षि के उत्तर का आशय - मैंने आन्तरिक क्षत्रियत्व घटित कर दिया है, क्योंकि सच्चा क्षत्रिय षटकायरक्षक एवं प्रात्मरक्षक होता है / कर्मरूपी शत्रुओं को पराजित करने के लिए वह प्रान्तरिक युद्ध छेड़ता है। उस आन्तरिक युद्ध में मुनि श्रद्धा को नगर बनाता है एवं तप, संवर, क्षमा, तीन गुप्ति, पाँच समिति, धृति, पराक्रम आदि विविध सुरक्षासाधनों के द्वारा प्रात्मरक्षा करते हुए विजय प्राप्त करता है / अन्तर्युद्ध-विजेता मुनि संसार से सर्वथा विमुक्त हो जाता है।' सद्धं समस्त गुणों के धारण करने वाली तत्त्वरुचिरूप श्रद्धा / अग्गलं-तप-बाह्य और प्राभ्यन्तर तप एवं आश्रवनिरोधरूप संवर मिथ्यात्वादि दोषों की निवारक होने से अर्गला है / (ख) उत्तरा. प्रियदशिनीटीका, भा. 2, पृ. 394 1. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र 311 2. बृहदवृत्ति, पत्र 311 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org