________________ 128] [उत्तराध्ययनसून हिंसा से सर्वथा विरत होने का उपदेश 7. 'समणा मु' एगे क्यमाणा पाणवहं मिया प्रयाणन्ता / __ मन्दा नरयं गच्छन्ति बाला पावियाहि दिट्ठीहि // [7] 'हम श्रमण हैं'–यों कहते हुए भी कई पशुसम अज्ञानी जीव प्राणवध को नहीं समझते / वे मन्द और अज्ञानी अपनी पापपूर्ण दृष्टियों से नरक में जाते हैं। 8. 'न हु पाणवहं अणुजाणे मुच्चेज कयाइ सन्चदुक्खाणं / ' एवारिएहि अक्खायं जेहिं इमो साहुधम्मो पन्नत्तो॥ [8] जिन्होंने इस साधुधर्म की प्ररूपणा की है, उन आर्यपुरुषों ने कहा है जो प्राणवध का अनुमोदन करता है, वह कदापि समस्त दुःखों से मुक्त नहीं हो सकता। 9. पाणे य नाइवाएज्जा से 'समिए' त्ति वुच्चई ताई। तओ से पाक्यं कम्मं निज्जाइ उदगं व थलाओ॥ [6] जो प्राणियों के प्राणों का अतिपात (हिंसा) नहीं करता, वही त्रायी (जीवरक्षक) मुनि 'समित' (सम्यक् प्रवृत्त) कहलाता है। उससे (अर्थात्-उसके जीवन से) पापकर्म वैसे हो निकल (हट) जाता है, जैसे उन्नत स्थल से जल। 10. जगनिस्सिएहि भूएहि तसनामेहि थावरेहिं च / नो तेसिमारभे दंडं मणसा बयसा कायसा चेव / / [10] जो भी जगत् के आश्रित (संसारी):त्रस और स्थावर नाम के (नामकर्मवाले) जीव हैं; उनके प्रति मन, वचन और काय से किसी भी प्रकार के दण्ड का प्रयोग न करे / विवेचन—मिया प्रयाणंता : व्याख्या-पाशविक बुद्धि वाले, अज्ञपुरुष / ज्ञपरिज्ञा से-प्राणी कितने प्रकार के कौन-कौन से हैं. उनके प्राण कितने हैं? उनका वध-प्रतिपात कैसे हो जाता है ? इन बातों को नहीं जानते तथा प्रत्याख्यानपरिज्ञा से प्राणिवध का प्रत्याख्यान नहीं करते। इस प्रकार प्रथम अहिंसावत को भी नहीं जानते, तब शेष व्रतों का जानना तो बहुत दूर की बात है।' पावियाहि दिट्ठीहि : दो रूप : दो अर्थ (1) प्रापिका दृष्टियों से, अर्थात्---नरक को प्राप्त कराने वाली दृष्टियों से, (2) पापिका दृष्टियों से, अर्थात्-पापमयी या पापहेतुक या परस्पर विरोध आदि दोषों से दूषित दृष्टियों से : जैसे कि उन्हीं के ग्रन्थों के उद्धरण--'न हिस्यात् सर्वभूतानि', 'श्वेतं छागमालभेत वायव्यां दिशि भतिकामः''ब्रह्मणे ब्राह्मणमालभेत. इन्द्राय क्षत्रिय,मरुदभ्यो, वैश्यं. तपसे शूद्रम् / ' तात्पर्य यह है कि एक ओर तो वे कहते हैं—'सब जीवों की हिंसा मत करो' किन्तु दूसरी ओर श्वेत बकरे का तथा ब्राह्मणादि के वध का उपदेश देते हैं। ये परस्परविरोधी पापमयी दृष्टियां हैं। 1. बृहद्वृत्ति, पत्र 292 2. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र 292-293 (ख) 'चर्म-वल्कलचीराणि, कूर्च-मुण्ड-जटा-शिखाः / न व्यपोहन्ति पापानि, शोधको तु दयादमौ // -वाचकवर्य उमास्वाति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org