________________ 80] [उत्तराध्ययनसून स्पर्श असमंजस (विघ्न या अव्यवस्था) पैदा करके पीड़ित करते हैं, किन्तु भिक्षु उन पर मन से भी प्रद्वेष न करें। M2. मन्दा य फासा बहु-लोहणिज्जा तह-पगारेसु मणं न कुज्जा। ___ रक्खेज्ज कोहं, विणएज्ज माणं मायं न सेवे, पयहेज्ज लोहं // [12] कामभोग के मन्द स्पर्श भी बहुत लुभावने होते हैं, किन्तु संयमी तथा प्रकार के (अनुकूल) स्पर्शों में मन को संलग्न न करे। (प्रात्मरक्षक साधक) क्रोध से अपने को बचाए, अहंकार (मान) को हटाए, माया का सेवन न करे और लोभ का त्याग करे।। ___विवेचन--फासा--यहाँ स्पर्श शब्द समस्त विषयों या कामभोगों का सूचक है। भगवद्गीता में स्पर्श शब्द इसी अर्थ में प्रयुक्त हुआ है।' मंदा-यहाँ 'मन्द' शब्द 'अनुकूल' अर्थ का वाचक है / अधर्मीजनों से सवा दूर रह कर अन्तिम समय तक प्रात्मगणाराधना करे 13. जेसंखया तुच्छ परप्पवाई ते पिज्ज-दोसाणुगया परज्झा / एए 'अहम्मे' ति दुगुछमाणो कंखे गुणे जाव सरीर-भेओ / / –त्ति बेमि। [13] जो व्यक्ति (ऊपर-ऊपर से) संस्कृत हैं, वे वस्तुत: तुच्छ हैं, दूसरों की निन्दा करने वाले हैं, प्रेय (राग) और द्वेष में फंसे हुए हैं, पराधीन (परवस्तुओं में आसक्त) हैं. ये सब अधर्म (धर्मरहित) हैं। ऐसा सोच कर उनसे उदासीन रहे और शरीरनाश-पर्यन्त आत्मगुणों (या सम्यग्दर्शनादि गुणों) की आराधना (महत्त्वाकांक्षा) करे। -ऐसा मैं कहता हूँ।३ विवेचन-संखया-सात अर्थ-(१) संस्कृतवचन वाले अर्थात्-सर्वज्ञवचनों में दोप दिखाने वाले, (2) संस्कृत बोलने में रुचि वाले, (3) तथाकथित संस्कृत सिद्धान्त का प्ररूपण करने वाले, (4) ऊपर-ऊपर से संस्कृत-संस्कारी दिखाई देने वाले, (5) संस्कारवादी, और (6) असंखया-प्रसंस्कृतअसहिष्णु या असमाधानकारी- गंवार, (7) जीवन संस्कृत हो सकता है--सांधा जा सकता है, या मानने वाले। // असंस्कृत : चतुर्थ अध्ययन समाप्त / / 1, (क) 'ये हि सस्पर्शजा: भोगा: दुःखयोनय एव ते।' भगवद्गीता, अ. 5, श्लो. 25 (ख) 'वाह्यस्पर्शध्वसत्तात्मा ।'-गीता 5121 (ग) 'मात्रा स्पर्शास्तु कौन्तेय !'-गीता 14 (घ) 'स्पर्शान कृत्वा बहिर्बालान् ।'-गीता 5 / 27 2. उत्तराज्झयणाणि (मु. नथमल) प्र.४, गा. 11 का अनुवाद, पृ. 56 3. (क) उत्त. चू., पृ. 126 (ख) वृहद्वृत्ति, पत्र 227 (ग) महावीरवाणी (पं. वेचरदास), पृ. 98 (घ) मनुस्मृतिकार आदि (ङ) उत्तरा. (डॉ. हरमन जेकोबी, सांडेसरा), पृ. 37, फुटनोट :. (च) उत्त. (मुनि नथमल), अ. 4, गा. 13, पृ. 53 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org