________________ सप्तम अध्ययन : उरभ्रीय अध्ययन-सार * इस अध्ययन के प्रारम्भ में कथित 'उरभ्र' (मेंढे) के दृष्टान्त के आधार से प्रस्तुत अध्ययन का नाम उरभ्रीय है / समवायांगसूत्र में इसका नाम 'एलकोय' है। मूलपाठ में भी 'एलयं' शब्द का प्रयोग हुआ है, अतः 'एलक' और 'उरभ्र' ये दोनों पर्यायवाची शब्द प्रतीत होते हैं।' श्रमणसंस्कृति का मूलाधार कामभोगों के प्रति अनासक्ति है। जो व्यक्ति कामभोगोंपंचेन्द्रिय-विषयों में प्रलुब्ध हो जाता है, विषय-वासना के क्षणिक सुखों के पीछे परिणाम में छिपे हुए महादुःखों का विचार नहीं करता, केवल वर्तमानदर्शी बन कर मनुष्यजन्म को खो देता है, वह मनुष्यभवरूपी मूलधन को तो गवाता ही है, उससे पुरुषार्थ द्वारा प्राप्त होने वाली वृद्धि के फलस्वरूप हो सकने वाले लाभ से भी हाथ धो बैठता है ; प्रत्युत अज्ञान एवं मोह के वश विषयसुखों में तल्लीन एवं हिंसादि पापकर्मों में रत होकर मूलधन के नाश से नरक और तिर्यञ्च गति का मेहमान बनता है। इसके विपरीत जो दरदर्शी बन कर क्षणिक विषयभोगों की आसक्ति में नहीं फंसता, अणुव्रतों या महाव्रतों का पालन करता है, संयम, नियम, तप में रत और परीषहादिसहिष्णु है, वह देवगति को प्राप्त करता है / अतः गहन तत्त्वों को समझाने के लिए इस अध्ययन में पांच दृष्टान्त प्रस्तुत किये गए हैं-- * १.क्षणिक सुखों-विशेषत: रसगृद्धि में फंसने वाले साधक के लिए मेंढे का दृष्टान्त- एक धनिक एक मेमने (भेड़ के बच्चे) को बहुत अच्छा-अच्छा आहार खिलाता। इससे मेमना कुछ ही दिनों में हृष्ट-पुष्ट हो गया। इस धनिक ने एक गाय और बछड़ा भी पाल रखे थे। परन्तु वह गाय, बछड़े को सिर्फ सूखा घास खिलाता था / एक दिन बछड़े ने मालिक के व्यवहार में पक्षपात की शिकायत अपनी मां (गाय) से की--'मां! मालिक मेमने को बहुत सरस स्वादिष्ठ आहार खाने-पीने को देता है और हमें केवल सूखा घास / ऐसा अन्तर क्यों ?' गाय ने बछड़े को समझाया- 'बेटा ! जिसकी मृत्यु निकट है, उसे मनोज्ञ एवं सरस आहार खिलाया जाता है। थोड़े दिनों में ही तू देखना मेमने का क्या हाल होता है ? हम सूखा घास खाते हैं, इसलिए दीर्घजीवी हैं। कुछ ही दिनों बाद एक दिन भयानक दृश्य देखकर बछड़ा कांप उठा और अपनी मां से बोला-'मां ! आज तो मालिक ने मेहमान के स्वागत में मेमने को काट दिया है! क्या मैं भी इसी तरह मार दिया जाऊंगा?' गाय ने कहा—'नहीं, बेटा ! जो स्वाद में लुब्ध होता है, उसे इसी प्रकार का फल भोगना पड़ता है, जो सूखा घास खाकर जीता है, उसे ऐसा दुःख नहीं भोगना पड़ता।' जो मनोज्ञ विषयसुखों में आसक्त होकर हिंसा, झूठ, चोरी, लूटपाट, ठगी, स्त्री और अन्य विषयों में द्धि, महारम्भ, महापरिग्रह, सुरा-मांससेवन, परदमन करता है, अपने शरीर को 1. उत्त. नियुक्ति, गा. 246 2. बृहद्वृत्ति, पत्र 272-275 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org