________________ 104] [उत्तराध्ययनसून दोगु छी:-तीन व्याख्याएँ-(१) जुगुप्सी = असंयम से जुगुप्सा करने वाला, (2) आहार किए बिना धर्म करने में असमर्थ अपने शरीर से जुगुप्सा करने वाला, (3) अप्पणो दुगु छी–प्रात्म जुगुप्सी-आत्मनिन्दक होकर / अर्थात आहार के समय अात्मनिन्दक होकर ऐसा चिन्तन करे कि अहो ! धिक्कार है मेरी आत्मा को, यह मेरी आत्मा या शरीर आहार के विना धर्मपालन में असमर्थ है / क्या करू, धर्मयात्रा के निर्वाहार्थ इसे भाड़ा देता हूँ। जैन शास्त्रों में दूसरों से जुगुप्सा करने का तो सर्वत्र निषेध है।' निष्कर्ष--- प्रस्तुत गाथा (8) में अदत्तादान एवं परिग्रह इन दोनों प्राश्रवों के निरोध सेउपरत होने से अन्य प्राश्रवों का निरोध भी ध्वनित होता है।' अप्पणो पाए दिन्नं---अपने पात्र में गृहस्थों द्वारा दिया हुआ / इस पंक्ति से यह भी सूचित होता है, कतिपय अन्यतीथिक साधु संन्यासियों या गरिकों की तरह निर्ग्रन्थि साधु गृहस्थ के बर्तनों में भोजन न करे / इसका कारण दशवकालिक सूत्र में दो मुख्य दोषों (पश्चात्कर्म एवं पुरःकर्म) का लगना बताया है / तात्पर्य-- दूसरी से सातवीं गाथा तक में अविद्याओं के विविध रूप और पण्डित एवं सम्यग्दृष्टि साधक को स्वयं समीक्षा-प्रेक्षा करके इनका वस्तुस्वरूप जानकर इनसे सर्वथा दूर रहने का उपदेश दिया है। अविद्याजनित मान्यताएँ 9. इहमेगे उ मन्नन्ति अप्पच्चक्खाय पावगं / आयरियं विदित्ताणं सव्य दुक्खा विमुच्चई / / [6] इस संसार में (या प्राध्यात्मिक जगत् में) कुछ लोग यह मानते हैं कि पापों का प्रत्याख्यान (त्याम) किये बिना ही केवल आर्य (-तत्त्वज्ञान) अथवा प्राचार (-स्व-स्वमत के वाह्य आचार) को जानने मात्र से ही मनुष्य सभी दुःखों से मुक्त हो सकता है। 1 (क) 'दुगंछा--संयमो. कि दुगंछति ? असंजयं ।'–उत्तरा. चणि, पृ. 152 (ख) बृहद्वत्ति, पत्र 266 (म) सुखबोधा, पत्र 122 (घ) उत्त. टीका, अ. रा. कोष. भाग 3 / 751 2. उत्तराध्ययन गा. 8, टीका, अ. रा. कोष, भा. 751 3. (क) उत्तरा. चूणि, पृ. 152 '........आत्मीयपात्रगृहणात् माभूत् कश्चित् परपात्र महोत्वा भक्षयति तेन पात्र ग्रण, ण सो परिग्गह इति / ' (ख) पात्रग्रहणं तु व्याख्यादयेऽपि माभूत निस्परिग्रहतया पात्रस्याऽप्यग्रहणमिति कस्यचिद व्यामोह इति ख्यापनार्थ, तदपरिग्रहे हि तथाविधलब्धाद्यभावेन पाणिभोक्तत्वाभावाद् गहिभाजन एवं भोजनं भवेत तत्र च बहुदोषसंभवः / तथा च शय्यम्भवाचार्य पच्छाकम्म पुरेकम्मं सिया तत्थ ण कपई / एयम ण भुजंति, णिग्गंथा गिहिभायणे // -दशवकालिक 653 --वृहद्वत्ति, पत्र 266 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org