________________ 20 // / उत्तराध्ययनसूत्र [31.] भिक्षु यथासमय (भिक्षा के लिए) निकले और समय पर लौट आए। (उस-उस क्रिया के) असमय (अकाल) में (उस क्रिया को) न करके जो किया जिस समय करने की हो, उसे उसी समय पर करे। विवेचन - कालचर्या से लाभ, अकालचर्या से हानि-जिस प्रकार किसान वर्षाकाल में बीज बोता है तो उसे समय पर अनाज की फसल मिलती है, उसी प्रकार उस-उस काल में उचित भिक्षा, प्रतिलेखन, प्रतिक्रमणादि क्रिया के करने से साधक को स्वाध्याय ध्यान आदि के लिए समय मिल जाता है, साधना से सिद्धि का लाभ मिलता है, उस क्रिया में मन भी लगता है। किन्तु जैसे कोई किसान वर्षाकाल बीत जाने पर बीज बोता है तो उसे अन्न की फसल नहीं मिलती, इसी प्रकार असमय में भिक्षाचर्या आदि करने से यथेष्ट लाभ नहीं मिलता, मन को भी संक्लेश होता है, साधना में तेजस्विता नहीं पाती, स्वाध्याय-ध्यानादि कार्यक्रम अस्तव्यस्त हो जाता है।' भिक्षाग्रहण एवं प्राहारसेवन की विधि 32. परिवाडीए न चिठ्ठज्जा भिक्खू दत्तेसणं चरे। पडिरूवेण एसित्ता मियं कालेण भक्खए / [32.] (भिक्षा के लिए गया हया) भिक्षु परिपाटी (भोजन के लिए जनता की पंक्ति) में खड़ा न रहे, वह गृहस्थ के दिये गए आहार की एषणा करे तथा मुनिमर्यादा के अनुरूप (प्रतिरूप) एषणा करके शास्त्रोक्त काल में (अावश्यकतापूर्तिमात्र) परिमित भोजन करे / 33. नाइदूरमणासन्ने नन्नेसि चक्खु-फासओ। / एगो चिट्ठज्ज भत्तट्ठा लंधिया तं नइक्कमे // [33.] यदि पहले से ही अन्य भिक्षु (गृहस्थ के द्वार पर) खड़े हों तो उनसे न अतिदुर और न अतिसमीम खड़ा रहे, न अन्य (गृहस्थ) लोगों की दृष्टि के समक्ष खड़ा रहे, किन्तु अकेला (भिक्षुओं और दाताओं की दृष्टि से बच कर एकान्त में) खड़ा रहे / अन्य भिक्षुओं को लांघ कर भोजन लेने के लिए घर में न जाए। 34. नाइउच्चे व नीए वा नासन्ने नाइदूरओ। फासुयं परकडं पिण्डं पडिगाहेज्ज संजए॥ [34.] संयमी साधु प्रासुक (अचित्त) और परकृत (अपने लिए नहीं बनाया गया) आहार ग्रहण करे, किन्तु अत्यन्त ऊँचे या बहुत नीचे स्थान से लाया हुअा तथा न अत्यन्त निकट से दिया जाता हुआ आहार ले और न अत्यन्त दूर से / 35. अप्पपाणेऽप्पनीयंमि पडिच्छन्नंमि संवुडे / ___ समयं संजए भुजे जयं अपरिसाडियं // 1. बृहत्वृत्ति का प्राशय, पत्र 59 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org