________________ [71 तृतीय अध्ययन : चतुरंगीय] एक पूर्व होता है / इस प्रकार के बहुत (असंख्य) पूर्वो तक / यहाँ 'बहु' शब्द असंख्य वाचक है तथा असंख्यात (बहु) सैकड़ों वर्षों तक / दशांग---(१) चार कामस्कन्ध-क्षेत्र-वास्तु, हिरण्य, पशुसमूह और दास-पौरुषेय, (क्रीत एवं मालिक की सम्पत्ति समझा जाने वाला दास, तथा पुरुषों-पोष्यवर्ग का.समूह-पौरुष), (2) मित्रवान्, (3) ज्ञातिमान्, (4) उच्चगोत्रीय, (5) वर्णवान्, (6) नीरोग, (7) महाप्राज्ञ, (8) विनीत, (6) यशस्वी, (10) शक्तिमान् / संजमं-यहाँ संयम का अर्थ है-सर्वसावद्ययोगविरतिरूप चारित्र / सिद्ध हवइ सासए-सिद्ध के साथ शाश्वत शब्द लगाने का उद्देश्य यह है कि कई मतवादी मोहवश परोपकारार्थ मुक्त जीव का पुनरागमन मानते हैं। जैनदर्शन मानता है कि सिद्ध होने के बाद संसार के कारणभूत कर्मबीज समूल भस्म होने पर संसार में पुनरागमन का कोई कारण नहीं रहता। // तृतीय प्रध्ययन : चतुरंगीय सम्पूर्ण // 1. बृहद्वत्ति, पत्र 187 2. उत्तरा. मूल., अ. 3, गा. 17-18 3. वृहद्वृत्ति, पत्र 187 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org