________________ तृतीय अध्ययन : चतुरंगोय] [ 65 कर उन्हें अपने सुभटों से बंधवाया और पिटवाकर अपने पास मंगवाया। उनके पूछने पर कि श्रमणोपासक होकर आपने हम श्रमणों पर ऐमा अत्याचार क्यों करवाया ? राजा ने कहा--आपके अव्यक्त मतानुसार हमें कैसे निश्चय हो कि आप श्रमण हैं या चोर ? मैं श्रमणोपासक हूँ या अन्य ? इस कथन को सुनकर वे सब प्रतिबुद्ध हो गए / अपनी मिथ्या धारणा के लिए मिथ्यादुष्कृत देकर पुनः स्थविरों की सेवा में चले गए। (4) अश्वमित्र-महागिरि आचार्य के शिष्य कौण्डिन्य अपने शिष्य अश्वमित्र मुनि को दशम विद्यानुप्रवाद पूर्व की नपुणिक नामक वस्तु का अध्ययन करा रहे थे। उस समय इस आशय का एक सुत्रपाठ पाया कि "वर्तमानक्षणवर्ती नरयिक से लेकर वैमानिक तक चौवीस दण्डकों के जीव द्वितीयादि समयों में विनष्ट (ब्युच्छिन्न) हो जाएंगे। इस पर से एकान्त क्षणक्षयवाद का आग्रह पकड़ लिया कि समस्त जीवादि पदार्थ प्रतिक्षण में विनष्ट हो रहे हैं, स्थिर नहीं है।" कौण्डिन्याचार्य ने उन्हें अनेकान्तदृष्टि से समझाया कि व्युच्छेद का अर्थ-वस्तु का सर्वथा नाश नहीं है, पर्यायपरिवर्तन है। अतः यही सिद्धान्त सत्य है कि--"समस्त पदार्थ द्रव्य की अपेक्षा से शाश्वत हैं, पर्याय की अपेक्षा से अशाश्वत / " परन्तु अश्वमित्र ने अपना दुराग्रह नहीं छोड़ा। राजगृहनगर के शुल्काध्यक्ष श्रावकों ने उन समुच्छेदवादियों को चाबुक आदि से खुव पीटा / जब उन्होंने कहा कि आप लोग श्रावक होकर हम साधुओं को क्यों पोट रहे हैं ? तब उन्होंने कहा-'अापके क्षणविनश्वर सिद्धान्तानुसार न तो हम वे आपके श्रावक हैं जिन्होंने आपको पीटा है, क्योंकि वे तो नष्ट हो गए, हम नये उत्पन्न हुए हैं तथा पिटने वाले प्राय भी श्रमण नहीं रहे, क्योंकि आप तो अपने सिद्धान्तानुसार विनष्ट हो चुके हैं।" इस प्रकार शिक्षित करने पर उन्हें प्रतिबोध हुअा / वे सब पुनः सत्य सिद्धान्त को स्वीकार कर अपने संघ में आ गए। (5) गंगाचार्य-उल्लुकातीर नगर के द्वितीय तट पर धूल के परकोटे से परिवत एक खेड़ा था। वहाँ महागिरि के शिष्य धनगुप्त प्राचार्य का चातुर्मास था। उनका शिष्य था--प्राचार्य गंग, जिसका चौमासा उल्लुकानदी के पूर्व तट पर बसे उल्लूकातीर नगर में था। एक वार शरत्काल में प्राचार्य गंग अपने गुरु को वन्दना करने जा रहे थे। मार्ग में नदी पड़ती थी। केशविहीन मस्तक होने से सूर्य की प्रखर किरणों के आतप से उनका मस्तक तप रहा था, साथ ही चरणों में शीतल जल का स्पर्श होने से शीतलता आ गई। मिथ्यात्वकर्मोदयवश उनकी बुद्धि में यह अाग्रह घुसा कि एक समय एक ही क्रिया का अनुभव करता है, यह पागमकथन वर्तमान में क्रियाद्वय के अनभव से सत्य प्रतीत नहीं होता, क्योंकि इस समय मैं एक साथ शीत और उष्ण दोनों स्पों का अनुभव कर रहा हूँ। आचार्य धनगुप्त ने उन्हें विविध युक्तियों से सत्य सिद्धान्त समझाया, मगर उन्होंने दुराग्रह नहीं छोड़ा। संघबहिष्कृत होकर वे राजगृह में पाए। वहाँ मणिप्रभ यक्ष ने द्विक्रियावाद की असत्प्ररूपणा से कुपित होकर मुद्गरप्रहार किया। कहा -"भगवान् ने स्पष्टतया यह प्ररूपणा की है कि एक जीव को क्रियाद्वय का एक साथ अनुभव नहीं होता (एक साथ दो उपयोग नहीं होते)। वास्तव में आपकी भ्रान्ति का कारण समय की अतिसूक्ष्मता है। अत: असत्प्ररूपणा को छोड़ दो, अन्यथा मुद्गर से मैं तुम्हारा विनाश कर दूंगा।" यक्ष के युक्तियुक्त तथा भयप्रद वचनों से प्रतिबुद्ध होकर गंगाचार्य ने दुराग्रह का त्याग करके प्रात्मशुद्धि की / (6) षडुलूक रोहगुप्त-श्रीगुप्ताचार्य का शिष्य रोहगुप्त अंतरंजिका नगरी में उनके दर्शनार्थ पाया। वहाँ पोट्टशाल परिव्राजक ने यह घोषणा की "मैंने लोहपट्ट पेट पर इसलिए बांध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org