________________ [उत्तराध्ययनसूत्र समा है, क्षपकश्रेणी पर आरूढ होने के लिए निसरणी है,' कर्मरिपु को पराजित करने वाली और केवलज्ञान- केवलदर्शन की जननी है।' नेआउयं—दोरूप : दो अर्थ- (१)नैयायिक-न्यायोपपन्न-न्यायसंगत, (2) नर्यातृकमोक्षदुःख के प्रात्यन्तिक क्षय की ओर या संसारसागर से पार ले जाने वाला / ' बहवे परिभस्सई-बहुत-से परिभ्रष्ट हो जाते हैं / इसका भावार्थ यह है कि जमालि आदि की तरह बहुत-से सम्यक् श्रद्धा से विचलित हो जाते हैं / दृष्टान्त--सुखबोधा टीका, एवं आवश्यकनियुक्ति आदि में इस सम्बन्ध में मार्गभ्रष्ट सात निह्नवों का दृष्टान्त सविवरण प्रस्तुत किया गया है / वे सात निह्नव इस प्रकार हैं-- (1) जमालि–क्रियमाण (जो किया जा रहा है, वह अपेक्षा से) कृत (किया गया) कहा जा सकता है, भगवान् महावीर के इस सिद्धान्त को इसने अपलाप किया, इसे मिथ्या बताया और स्थविरों द्वारा युक्तिपूर्वक समझाने पर अपने मिथ्याग्रह पर अड़ा रहा / उसने पृथक् मत चलाया। (2) तिष्यगुप्त सप्तम आत्मप्रवाद पूर्व पढ़ते समय किसी नय की अपेक्षा से एक भी प्रदेश से हीन जीव को जीव नहीं कहा जा सकता है, इस कथन का आशय न समझ कर एकान्त आग्रह पकड़ लिया कि अन्तिम प्रदेश ही जीव है, प्रथम-द्वितीयादि प्रदेश नहीं। प्राचार्य वसु ने उसे इस मिथ्याधारणा को छोड़ने के लिए बहुत कहा / युक्तिपूर्वक समझाने पर भी उसने कदाग्रह न छोड़ा। किन्तु वे जब अामलकप्पा नगरी में आए तो उनकी मिथ्या प्ररूपणा सुनकर भगवान महावीर के श्रावक मित्रश्री सेठ ने अपने घर भिक्षा के लिए प्रार्थना की। भिक्षा में उन्हें मोदकादि में से एक तिलप्रमाण तथा घी आदि में से एक बिन्दुप्रमाण दिया। कारण पूछने पर कहा-आपका सिद्धान्त है कि अन्तिम एक प्रदेश ही पूर्ण जीव है, तथैव मोदकादि का एक अवयव भी पूर्ण मोदकादि हैं। आपकी दृष्टि में जिनवचन सत्य हो, तभी मैं तदनुसार आपको पर्याप्त भिक्षा दे सकता हूँ / तिष्यगुप्त ने अपनी भूल स्वीकार की, आलोचना करके शुद्धि करके पुनः सम्यक्बोधि प्राप्त की। (3) आषाढ़ाचार्य-शिष्य-हृदयशूल से मृत आषाढ़ प्राचार्य ने अपने शिष्यों को प्रथम देवलोक से आकर साधुवेष में अगाढयोग की शिक्षा दी। बाद में पुन: देवलोकगमन के समय शिष्यों को वस्तुस्थिति समझाई और वह देव अपने स्थान को चले गए। उनके शिष्यों ने संशयमिथ्यात्वग्रस्त होकर अव्यक्तभाव को स्वीकार किया / वे कहने लगे-हमने अज्ञानवश असंयत देव को संयत समझ कर वन्दना की, वैसे ही दूसरे लोग तथा हम भी एक दूसरे को नहीं जान सकते कि हम असंयत हैं या संयत ? अतः हमें समस्त वस्तुओं को अव्यक्त मानना चाहिए, जिससे मृषावाद भी न हो, असंयत को वन्दना भी न हो / राजगृहनृप बलभद्र श्रमणोपासक ने अव्यक्त निह्नवों का नगर में आगमन सुन 1. उत्तराध्ययन, प्रियदर्शनीव्याख्या, अ. 3, पृ. 641 2. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र 185 'नैयायिकः न्यायोपपन्न इत्यर्थः / ' (ख) उत्तराध्ययनचूणि / नयनशीलो नैयायिकः / (ग) नयनशीलो नेयाइयो (नर्यातृक:) मोक्षं नयतीत्यर्थः। (घ) बुद्धचर्या, पृ. 467, 489 —सूत्रकृतांगणि, पृ. 457 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org