________________ 621 [उत्तराध्ययनसूत्र कीलिका डाले / अब वह कीलिका वहाँ से बहती-बहती चली आए और बहते हुए इस जुए से मिल जाए तथा वह कोलिका उस जुए के छेद में प्रविष्ट हो जाए, यह अत्यन्त दुर्लभ है, इसी तरह मनुष्यभव से च्युत हुए प्रमादी को पुनः मनुष्यभव की प्राप्ति अति दुर्लभ है / (10) परमाणु--कौतुकवश किसी देव ने माणिक्यनिर्मित स्तम्भ को वज्रप्रहार से तोड़ा, फिर उसे इतना पीसा कि उसका चूराचूरा हो गया। उस चूर्ण को एक नली में भरा और सुमेरु शिखर पर खड़े होकर फूंक मारी, जिससे वह चारों तरफ उड़ गया / वायु के प्रबल झौंके उस चूर्ण को प्रत्येक दिशा में दूर-दूर ले गए। उन सब परमाणुओं को एकत्रित करके पुनः उस माणिक्य स्तम्भ का निर्माण करना दुष्कर है, वैसे ही मनुष्यभव से च्युत जीव को पुनः मनुष्यभव मिलना दुर्लभ है।' खत्तिओ, चंडाल, वोक्कसो-तीन शब्द संग्राहक हैं-(१) क्षत्रियशब्द से वैश्य, ब्राह्मण आदि उत्तम जातियों का, (2) चाण्डाल शब्द से निषाद, श्वपच आदि नीच जातियों का और (3) वोक्कस शब्द से सूत, वैदेह, आयोगव आदि संकीर्ण (वर्णसंकर) जातियों का ग्रहण किया गया है। चूणि के अनुसार ब्राह्मण से शूद्रस्त्री में उत्पन्न निषाद अथवा ब्राह्मण से वैश्यस्त्री में उत्पन्न अम्बष्ठ और निषाद से अम्बष्ठस्त्री में उत्पन्न बोक्कस कहलाता है / ___ आवट्टजोणीसु-आवर्त का अर्थ परिवर्त्त है, आवर्त्तप्रधान योनियाँ प्रावतयोनियाँ हैं- चौरासी लाख प्रमाण जीवोत्पत्तिस्थान हैं, उनमें अर्थात्--योनिचक्रों में / कम्मकिब्बिसा-दो प्रर्थ-कर्मों से किल्विष - अधम, अथवा जिनके कर्म किल्विष-अशुभमलिन हों। सव? सु व खत्तिया व्याख्या-जिस प्रकार क्षत्रिय-राजा आदि सर्वार्थों सभी मानवीय काम-भोगों में आसक्त हो जाते हैं, उसी प्रकार भवाभिनन्दी पुनः पुनः जन्म-मरण करते हुए उसी (संसार) में आसक्त हो जाते हैं।" विस्संभिया पया- विश्वभृतः प्रजाः—पृथक्-पृथक् एक-एक योनि में क्वचित् कदाचित् अपनी उत्पत्ति से प्राणी सारे जगत् को भर देते हैं, सारे जगत् में व्याप्त हो जाते हैं / कहा भी है-. . 1. (क) उत्तराध्ययन (प्रियदर्शिनी व्याख्या) पू. घासीलालजी म., अ. 3 टीका का सार, पृ. 574 से 625 तक (ख) जैन कथाएँ, भाग 68 2. (क) उत्तरा. चूणि., पृ. 96 (ख) इह च भत्रियग्रहणादुत्तमजातयः चाण्डालग्रहणान्नीचजातयो, बुक्कसग्रहणाच्च संकीर्णजातयः उपलक्षिताः / - उत्तरा. बृहद्वृत्ति, पत्र 182-183 3. प्रावतः परिवर्तः, तत्प्रधाना योनयः-चतुरशीतिलक्षप्रमाणानि जीवोत्पत्तिस्थानानि प्रावर्तयोनयस्तासु / -सुखबोधा, पत्र 68 4. कर्मणा-उक्तरूपेण किल्विषा:-अधमाः कर्मकिल्विषा:, किल्विषानि क्लिष्टतया निकृष्टानि अशुभानुबंधीनि ____ कर्माणि येषां ते किल्विषकर्माणः / -बृहद्वत्ति, पत्र 183 5. बृहद्वत्ति, पत्र 184 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org