________________ 58 [उत्तराध्ययनसूत्र (क्रीड़ापरायणता)।' सद्धर्मश्रवण न होने पर मनुष्य हेयोपादेय, श्रेय-अश्रेय, हिताहित, कार्याकार्य का विवेक नहीं कर सकता। इसीलिए मनुष्यता के बाद सद्धर्मश्रवण को परम दुर्लभ बताया है। ___ श्रवण के बाद तीसरा दुर्लभ अंग है-श्रद्धा-यथार्थ दृष्टि, धर्मनिष्ठा, तत्त्वों के प्रति रुचि और प्रतीति / जिसकी दृष्टि मिथ्या होती है, वह सद्धर्म, सच्छास्त्र एवं सत्तत्व की बात जान-सुन कर भी उस पर श्रद्धा, प्रतीति एवं रुचि नहीं करता। कदाचित् सम्यक् दृष्टिकोण के कारण श्रद्धा भी कर ले, तो भी उसकी ऋजुप्रकृति के कारण सद्गुरु एवं सत्संग के अभाव में या कुदृष्टियों एवं अज्ञानियों के संग से असत्तत्त्व एवं कुधर्म के प्रति भी श्रद्धा का झुकाव हो सकता है, जिसका संकेत बृहद्वत्तिकार ने किया है। सुदृढ एवं निश्चल-निर्मल श्रद्धा की दुर्लभता बताने के लिए ही नियुक्तिकार ने इस अध्ययन में सात निह्नवों की कथा दी है / ' इस कारण यह कहा जा सकता है कि सच्ची श्रद्धा-धर्मनिष्ठा परम दुर्लभ है। * अन्तिम दुर्लभ परम अंग है-संयम में पराक्रम-पुरुषार्थ / बहुत-से लोग धर्मश्रवण करके, तत्त्व समझ कर श्रद्धा करने के बाद भी उसी दिशा में तदनुरूप पुरुषार्थ करने से हिचकिचाते हैं। अतः जानना-सुनना और श्रद्धा करना एक बात है और उसे क्रियान्वित करना दूसरी। सद्धर्म को क्रियान्वित करने में चारित्रमोह का क्षयोपशम, प्रबल संवेग, प्रशम, निर्वेद (वैराग्य), प्रबल आस्था, आत्मबल, धृति, संकल्पशक्ति, संतोष, अनुद्विम्तता, आरोग्य, वातावरण, उत्साह आदि अनिवार्य हैं / ये सब में नहीं होते। इसीलिए सबसे अन्त में संयम में पुरुषार्थ को दुर्लभ बताया है, जिसे प्राप्त करने के बाद कुछ भी प्राप्तव्य नहीं रह जाता। अध्ययन के अन्त में 11 वी से 20 वीं तक दस गाथाओं में दुर्लभ चतुरंगीय प्राप्ति के अनन्तर धर्म की सांगोपांग आराधना करने की साक्षात् और परम्पर फलश्रुति दी गई है। संक्षेप में, सर्वांगीण धर्माराधना का अन्तिम फल मोक्ष है / 1. आलस मोहश्वना, यंभा कोहा पमाय किविणता / भयसोगा अन्नाणा, वक्खेव कुऊहला रमणा // -उत्तरा. नियुक्ति, गा. 161 2. ननु एवंविधा अपि केचिदत्यन्तमृजव: सम्भवेयुः? ....स्वयमागमानुसारिमतयोऽपि गुरुप्रत्ययाद्विपरीतमर्थं प्रतिपन्नाः। ---उत्त. बृहद्वृत्ति, पत्र 152 बहुरयपएस अव्वत्तसमुच्छ दुग-तिग-अबद्धिका चेव / एएसि निग्गमणं कुच्छामि अहाणुपुब्बीए / बहुरय जमालिपभवा, जीवपएसा य तीसगुत्ताओ। अश्वत्ताऽऽसाढाओ, सामुच्छेयाऽऽसमित्ताओ॥ गंगाए दो किरिया, छलगा तेरासियाण उत्पत्ती / थेरा य गुट्ठमाहिल पुट्ठमबद्ध पहविति // --उत्त. नियुक्ति, गा. 164 से 166 तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org