________________ तृतीय अध्ययन : चतुरंगीय अध्ययन-सार * प्रस्तुत तृतीय अध्ययन का नाम चतुरंगीय है, यह नाम अनुयोगद्वारसूत्रोक्त नामकरण के दस हेतुनों में से प्रादान (प्रथम) पद के कारण रखा गया है / ' * अनादिकाल से प्राणी की संसारयात्रा चली आ रही है। उसकी जीवननौका विभिन्न गतियों, योनियों और गोत्रों में दुःख, परतंत्रता एवं अज्ञान-मोह के थपेड़े खाती हुई स्वतंत्रसुख-पात्मिक सुख का अवसर नहीं पाती। फलतः दुःख और यातना से मुक्त होने का कोई उपाय नहीं मिलता। किन्तु प्रबल पुण्यराशि के संचित होने पर उसे इस दुःखद संसारयात्रा की परेशानी से मुक्त होने के दुर्लभ अवसर प्राप्त होते हैं। वे चार दुर्लभ अवसर ही चार दुर्लभ परम अंग हैं, जिनकी चर्चा इस अध्ययन में हुई है। जीवन के ये चार प्रशस्त अंग हैं। ये अंग प्रत्येक प्राणी द्वारा अनायास ही प्राप्त नहीं किये जा सकते / चारों दुर्लभ अंगों का एक ही व्यक्ति में एकत्र समाहार हो, तभी वह धर्म की पूर्ण अाराधना करके इस दुर्लभ संसारयात्रा से मुक्ति पा सकता है, अन्यथा नहीं। एक भी अंग की कमी व्यक्ति के जीवन को अपूर्ण रखती है। इसलिए ये चारों अंग उत्तरोत्तर दुर्लभ हैं / प्रस्तुत अध्ययन में-(१) मनुष्यत्व, (2) सद्धर्म-श्रवण, (3) सद्धर्म में श्रद्धा और (4) संयम में पराक्रम-इन चारों अंगों की दुर्लभता का क्रमशः प्रतिपादन है / सर्वप्रथम इस अध्ययन में मनुष्यजन्म को दुर्लभता का प्रतिपादन 6 गाथाओं में किया गया है। यह तो सभी धर्मों और दर्शनों ने माना है कि मनुष्यशरीर प्राप्त हुए बिना मोक्षजन्ममरण से, कर्मों से, रागद्वेषादि से मुक्ति - नहीं हो सकती। इसी देह से इतनी उच्च साधना हो सकती है और आत्मा से परमात्मा बना जा सकता है। परन्तु मनुष्यदेह को पाने के लिए पहले एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक की तथा मनुष्यगति और मनुष्ययोनियों के सिवाय अन्य गतियों और योनियों तक की अनेक घाटियाँ पार करनी पड़ती हैं, बहुत लम्बी यात्रा करनी पड़ती है। कभी देवलोक, कभी नरक और कभी प्रासुरी योनि में मनुष्य कई जन्ममरण करता है। मनुष्य गति में भी कभी अत्यन्त भोगासक्त क्षत्रिय बनता है, कभी चाण्डाल और संस्कारहीन जातियों में उत्पन्न हो कर बोध ही नहीं पाता। अत: वह शरीर की भूमिका से ऊपर नहीं उठ पाता। तिर्यञ्चगति में तो एकेन्द्रिय से ले कर पंचेन्द्रिय तक आध्यात्मिक विकास की प्रथम किरण भी प्राप्त होनी कठिन है। निष्कर्ष यह है कि देव, धर्म की पूर्णतया आराधना नहीं कर सकते, नारक जीव सतत भोषण दुःखों से प्रताड़ित रहते हैं, अतः उनमें 1. से कि तं आयाणपएणं ?""चाउरंगिज्जं, असंखयं, अहातत्थियं अदृइज्जं"जण्ण इज्ज""एलइज्ज""से तं आयाणपएणं / --अनुयोगद्वार, सूत्र 130 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org