________________ द्वितीय अध्ययन में परीषह पर भी निक्षेय दृष्टि से विचार है। द्रव्य निक्षेप ग्रागम और नो-पागम के भेद से दो प्रकार का है। नो-पागम परीषह, ज्ञायक-शरीर, भव्य और तद् व्यतिरिक्त इस प्रकार तीन प्रकार का है। कर्म और नोकर्म रूप से द्रव्य परीषह के दो प्रकार हैं। नोकर्म रूप द्रव्य परीषह सचित्त, अचित्त और मिश्र रूप मे तीन प्रकार के हैं / भाव परोषह में कर्म का उदय होता है। उसके कूतः, क्रस्य, द्रव्य, ममवतार, अध्यास, नय, वर्तना, काल, क्षेत्र, उद्देश, पृच्छा, निर्देश और सूत्रस्पर्श ये तेरह द्वार हैं / 32. क्षत पिपामा की विविध उदाहरणों के द्वारा व्याख्या की है / ततीय अध्ययन में चतुरंगीय शब्द की निक्षेप पद्धति से व्याख्या की हैं और अंग का भी नामाङ्ग, स्थापनाङ्ग, द्रव्याङ्ग और भावाङ्ग के रूप में चिन्तन करते हा द्रव्याङ्ग के गंधाङ्ग, औषधाङ्ग, मद्याङ्ग, अातोद्यान, शरीराङ्ग और गुद्धाङ्ग छह प्रकार बताये हैं। गंधाङ्ग के जमदग्नि जटा, हरेण का, शबर निवसनक (तमालपत्र), मपिन्निक, मल्लिकावासित, औसीर, हृवर, भद्रदाम, शतपुरया. अादि भेद है / इनसे स्नान और विलेपन किया जाता था। औषधाङ्ग गुटिका में पिण्डदारु, हन्द्रिा, माहेन्द्रफल, सुष्ठी, पिप्पली. मरिच, याक, बिल्वमूल और पानी ये प्रष्ट वस्तुएँ मिली हुई होती है। इससे कण्ड, तिमिर, अर्ध शिगेरोग, पूर्ण शिरोरोग, तात्तीरीक, चातुथिक, ज्वर, मूषकदंश, सर्पदंश शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं२१ / द्राक्षा के सोलह भाग, धातकी पुष्प के। चार भाग, एक पादक इक्षुरस इनसे मद्याङ्ग बनता है। एक मुकुन्दातुर्य, एक अभिमारदारुक, एक शाल्मली पुष्प, इनके वंध से पुप्पोन - मिश्र बाल बंध विशेष होता है। सिर, उदर, पीठ, वाह, उरु, ये शरीराङ्ग है। युद्धाङ्ग के भी यान, ग्रावरण, प्रहरण, कुशलत्व, नीति, दक्षत्व, व्यवसाय, शरीर. पागेग्य ये नौ प्रकार बताये गये है। भावाङ्ग के श्र ताङ्ग और नोश्र ताङ्ग ये दो प्रकार हैं। श्रताङ्ग के प्राचार आदि बारह प्रकार है। नोश्र तांग के चार प्रकार हैं। ये चार प्रकार ही चतुरंगीय के रूप में विश्व त है। मानव भव की दुर्लभता विविध उदाहरणों के द्वारा बताई गई हैं। मानव भव प्राप्त होने पर भी धर्म का श्रवण ब.टिन है / और उस पर श्रद्धा करना और भी कठिन है। श्रद्धा पर चिन्तन करते हए जमालि आदि सात निह्नवों का परिचय दिया गया है / 322. चतुर्थ अध्ययन का नाम प्रसंस्कृत है। प्रमाद और अप्रमाद दोनों पर निक्षेप रष्टि से विचार किया गया है। जो उत्तरकरण से कृत अर्थात निर्वतित है, वह संस्कृत है। शेष असंस्कृत हैं। करण का भी नाम आदि छह निक्षेपों से विचार है। द्रव्यकरण के संज्ञाकरण, नोसंज्ञाकरण ये दो प्रकार हैं। संज्ञाकरण के कटकरण, अथंकरण और वेलुकरण ये तीन प्रकार हैं। नोसंज्ञाकरण के प्रयोगकरण और विस्रसाकरण ये दो प्रकार हैं। विस्रसाकरण के सादिक और अनादिक ये दो भेद हैं। अनादि के धर्म, अधम, आकाश ये तीन प्रकार हैं / सादिक के चतुम्पर्ण, प्रचतुस्पर्श ये दो प्रकार हैं / इस प्रकार प्रत्येक के भेद-प्रभेद करके उन सभी की विस्तार से चर्चा करते हैं। इस नियुक्ति में यत्र-तत्र अनेक शिक्षाप्रद कथानक भी दिये हैं। जैसे-गंधार, श्रावक, तोसलीपुत्र, स्थलभद्र, स्कन्दकपुत्र, ऋषि पाराशर, कालक, करकण्ड आदि प्रत्येकबुद्ध, हरिकेश, मृगापुत्र, प्रादि / निह्नवों के जीवन पर भी प्रकाश डाला गया है / भद्रबाहु के चार शिष्यों का राजगृह के वैभार पर्वत की गुफा में शीत परीषह से और मुनि सुवर्णभद्र के मच्छरों के घोर उपसर्ग से कालगत होने का उल्लेख भी है। इसमें अनेक उक्तियाँ सूक्तियों के रूप में हैं। उदाहरण के रूप में देखिए---- 320. उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा 65 से 68 तक / 321. आवश्यक नियुक्ति, गाथा 149-150 322. उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा 159-178, [ 90 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org/