________________ है / इस परिभाषा के अनुसार दसवें गुणस्थान तक ही लेश्या हो सकती है। प्रस्तुत परिभाषा अपेक्षाकृत होने से पूर्व की परिभाषाओं से विरुद्ध नहीं है। भगवती, प्रज्ञापना और पश्चाद्वर्ती साहित्य में लेश्या पर व्यापक रूप से निन्तन किया गया है। विस्तार-भय से हम उन सभी पहलुओं पर यहाँ चिन्तन नहीं कर रहे हैं। पर यह निश्चित है कि जैन मनीषियों ने लेश्या का वर्णन किसी सम्प्रदाय विशेष से नहीं लिया है। उसका यह अपना मौलिक चिन्तुन है।303 प्रस्तुत अध्ययन में संक्षेप में कर्मलेश्या के नाम, वर्ण, रस, गंध, स्पर्श, परिणाम, लक्षण, स्थान, स्थिति, गति और आयुष्य का निरूपण किया है। इन सभी पहलुओं पर श्यामाचार्य ने विस्तार से प्रज्ञापना में लिखा है। व्यक्ति के जीवन का निर्माण उसके अपने विचारों से होता है। वह अपने को जैसा चाहे, बना सकता है / बाह्य जगत का प्रभाव प्रान्तरिक जमत पर होता है और प्रान्तरिक जगत् का प्रभाव बाह्य जगत् पर होता है। वे एक दूसरे से प्रभावित होते हैं। पुद्गल से जीव प्रभावित होता है और जीव से पुद्गल प्रभावित होता है। दोनों का परस्पर प्रभाव ही प्रभा है, ग्राभा है, कान्ति है, और वही पागम की भाषा में लेश्या है। अनगार धर्म : एक चिन्तन पैतीसवें अध्ययन में अनगारमार्गगति का वर्णन है। केवल गह का परित्याग करने से अनगार नहीं होता, अनगारधर्म एक महान धर्म है। अत्यन्त सतर्क और सजग रहकर इस धर्म की प्रागधना और साधना की जाती है। केवल बाह्य संग का त्याग ही पर्याप्त नहीं है। भीतर से असंग होना आवश्यक है। जब तक देह ग्रादि के प्रति रागादि सम्बन्ध रहता है तब तक साधक भीतर से असंग नहीं बन मकता / इसीलिए एक जैनाचार्य ने लिखा है"कामानां हृदये वासः संसार इति कीत्यंते" "जिस हृदय में कामनाओं का वास है, वहाँ संमार है" अनगार कामनाओं से ऊपर उठा हुआ होता है, इसीलिए वह प्रसंग होता है। संग का अर्थ लेप या प्रासक्ति है। प्रस्तुत अध्ययन में उसके हिसा, असत्य, चौर्य. अब्रह्म-सेवन, इच्छा-काम, लोभ, संमक्त स्थान, गृहनिर्माण, अन्नपाक, धनार्जन की वृत्ति, प्रतिबद्धभिक्षा, स्वादवृत्ति और पूजा की अभिलाषा, ये तेरह प्रकार बताए हैं इन वृत्तियों में जो प्रसंग होता है वही श्रमण है। श्रमणों के लिए इस अध्ययन में कहा गया है कि मुनि धर्म और शुक्लध्यान का अभ्यास करें साथ ही "सुक्कज्झाणं झियाएज्जा" अर्थात् शुक्लध्यान में रमण करे। जब तक अनगार जीए तब तक प्रसंग जीवन जीए और जब उसे यह ज्ञात हो कि मेरी मत्यु सन्निकट आ चकी है तो पाहार का परित्याग कर अनशनपूर्वक समाधिमरण को वरण करे। जीवन-काल में देह के प्रति जो ग्रासक्ति रही हो उसे शनैः शनैः कम करने का अभ्यास करे / देह को माधना का साधन मानकर देह के प्रतिवन्ध से मुक्त हो। यही अनगार का मार्ग है। अनगार दुःख के मुल को नष्ट करता है। वह साधना के पथ पर बढ़ते समय श्मशान, शून्यागार तथा वक्ष के नीचे भी निवास करता है। जहाँ पर शीत आदि का भयंकर कष्ट उसे सहन करना पड़ता है, वहाँ पर उसे वह कष्ट नहीं मानकर इन्द्रिय-विजय का मार्ग मानना है। अहिंमा धर्म की अनुपालना के लिए वह भिक्षा प्रादि के कष्ट को भी महर्ष स्वीकार करता है। इस तरह इस अध्ययन में अनगार से सम्बन्धित विपुल सामग्री दी गई है। जीव-अजीव : एक पर्यवेक्षण / छत्तीसवें अध्ययन में जीव और अजीव के विभागों का वर्णन है। जैन तत्वविद्या के अनुसार जीव और अजीव ये दो मूल तत्त्व हैं। अन्य जितने भी पदार्थ हैं, वे इनके अवान्तर विभाग हैं। जैन दृष्टि से द्रव्य यात्मकेन्द्रित है। उसके अस्तित्व का स्रोत किसी अन्य केन्द्र से प्रवहमान नहीं है। जितना वास्तविक और स्वतन्त्र चेतन द्रव्य है, उतना ही वास्तविक और स्वतन्त्र अचेतन तत्त्व है। चेतन और अचेतन का विस्तृत रूप ही यह जगत् है। 303. देखिए लेखक का प्रस्तुत ग्रन्थ-"चिन्तन के विविध आयाम"। -'लेश्या :क विश्लेषण लेख' / [86 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org