Book Title: Agam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Part 03 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 18
________________ स्थानाङ्गसूत्रे छाया - चत्वारि उदकानि प्रज्ञप्तानि तद्यथा - कर्दमोदकं १, खञ्जनोदकं २, चालुकोदकं ३, शैलोदकम् ४. एवमेव चतुर्विधो भावः प्रज्ञतः, तद्यथा - कर्दमोदकसमानः १, खञ्जनोदकसमानः २, वालुकोदकसमानः ३, शैलोदकसमानः ४ | कर्दमोदकसमान भावमनुप्रविष्टो जीवः कालं करोति नैरयिकेषूपपद्यते, एवं यावत् शैलोदकसमानं भावमनुप्रविष्टो जीवः कालं करोति देवेषूपपद्यते ||०१ || टीका - " चत्तारि उदगा" इत्यादि अत्रैतस्मादुदकसूत्रात् पूर्व यदेकं राजिसूत्रं तद्वितीयोद्देशे गतम् उदकानि जलानि चत्वारि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा - कर्दमोदकं १, खज्जनोदकं २, वालुकोदकं ३, शैलोदकं ४ चेति । तत्र कर्दमोदकं कर्दमप्रधानमुदकं यत्र प्रविष्टं पादाद्य कईमबाहुल्येन सहसाऽऽक्रष्टुं न शक्यते, तत् १ | तथा-खज्जनोद के - खअनं - दीपादीनां कज्जलं. तच्च पादादिलेपकारक कर्दम विशेषरूपमेव, तत्प्रधानमुदकं खञ्जनोदकम्, तच्च लग्नं सत् चरसूत्रार्थ - जल चार प्रकार के कहे गये हैं, कर्दमोदक-१ खञ्जनोदक-२ बालु कोदक - ३ शैलोदक - ४ । भाव चार प्रकारका कहा गया है, जैसे - कर्दमोदक समान - १ खञ्जनोदक समान २ वालुकोदक समान -३ और शैलोदक समान -४ | कर्दमोदक समान भाव में अनुप्रविष्ट हुवा जीव यदि कालवश होता है, तो वह नरक में उत्पन्न होता है, इस तरह से यावत्-शैलोदक समान भाव में अनुप्रविष्ट हुवा जीव यदि काल यश होता है तो वह देवों में उत्पन्न होता है। ર टीकार्थ - कर्दम प्रधान जो उदक होता है वह कर्दमोदक है. ऐसे कर्दमोदक में फसा हुवा पैर आदि शारीरिक अङ्ग सहसा उस से खींचा नहीं जा सकता है । दीपादिकों के कज्जल - स्याही का नाम खञ्जन है, यह-पादादि कों में लिप्स करने पर सूत्रार्थ - ३६४ (४) यार अारनुं हुं छे - (१) उभोउ, (२) मनोहर, (3) वालुअह! भने (४) शैलोह, भजनी प्रेम लाव पक्षु यार प्रहारना ह्या छे—४६ मा समान, (२) नहि समान, ( 3 ) वालुअह समान भने શૈલેાદક સમાન કમાઢક સમાન ભાવમાં પ્રવેશેલા જીવ જો મરણ પામે છે, તે નારકામાં ઉત્પન્ન થાય છે, પરન્તુ શૈલેાદક સમાન ભાવમાં પ્રવેશેલા જીવ જો મરણ પામે છે, તે દેવામાં ઉત્પન્ન થાય છે ટીકાય –ક મયુક્ત પાણીને કદ માદક કહે છે, એવાં કઈ માદકમાં (કાદવમાં) જો પગ આદિ કાઇ અંગ ફસાયું હોય તે તેને સરળતાથી ખેંચી લઇ શકાતું નથી. તેમાં ફ્સાયેલ પાણી બહાર નીકળવાના પ્રયત્ન જેમ વધુ કરે તેમ તેમાં વધારે ને વધારે ખૂપતું જાય છે. ક્રિપાદિકાના કાજળને ખંજન કહે છે. આ શ્રી સ્થાનાંગ સૂત્ર : ૦૩

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