Book Title: Adhyatma Pravachana Part 2 Author(s): Amarmuni Publisher: Sanmati Gyan Pith AgraPage 19
________________ १८ अध्यात्म-प्रवचन कहा गया है, कि अवधि का अर्थ है-सीमा । जिस ज्ञान की सीमा होती है, उसे अवधिज्ञान कहा जाता है। अवधिज्ञान की सीमा क्या है ? रूपी पदार्थों को जानना । अवधिज्ञान के दो भेद हैं- भवप्रत्यय और गुणप्रत्यय । भवप्रत्यय अवधिज्ञान देव और नारक को होता है । गुणप्रत्यय अवधिज्ञान मनुष्य और तिर्यञ्च को होता है। जो अवधिज्ञान बिना किसी साधना के मात्र जन्म के साथ ही प्रकट होता है, उसे भवप्रत्यय कहते हैं। जो अवधिज्ञान किसी साधना विशेष से प्रकट होता है, उसे गुणप्रत्यय कहा जाता है। अवधिज्ञान के अन्य प्रकार से भी भेद किए गए हैं, किन्तु उनका यहाँ पर विशेष वर्णन करना अभीष्ट नहीं है। यहाँ तो केवल अवधिज्ञान के स्वरूप और उसके मुख्य भेदों काही कथन करना अभीष्ट है। पाँच ज्ञानों में चौथा ज्ञान है - मनःपर्यायज्ञान । यह ज्ञान मनुष्य गति के अतिरिक्त अन्य किसी गति में नहीं होता है । मनुष्य में भी संयत मनुष्य को ही होता है, असंयत मनुष्य को नहीं । मनःपर्याय ज्ञान का अर्थ है- मनुष्यों के मन के चिन्तित अर्थ को जानने वाला ज्ञान । मन एक प्रकार का पौद्गलिक द्रव्य है। जब व्यक्ति किसी विषय विशेष का विचार करता है, तब उसके मन का तदनुसार पर्यायों में परिवर्तन होता रहता है । मनःपर्याय ज्ञानी मन की इन पर्यायों का साक्षात्कार करता है। उस पर से वह यह जान सकता है कि अमुक व्यक्ति किस समय क्या बात सोचता रहा है। अतः मनःपर्याय ज्ञान का अर्थ है-मन के परिणमन का साक्षात् प्रत्यक्ष करके मनुष्य के चिन्तित अर्थ को जान लेना। मनः पर्यायज्ञान के दो भेद हैं-ऋजुमति और विपुलमति । ऋजुमति की अपेक्षा विपुलमति ज्ञान विशुद्धतर होता है। क्योंकि विपुलमति ऋजुमति की अपेक्षा मन के अति सूक्ष्म परिणामों को भी जान सकता है। दूसरी बात यह है कि ऋजुमति प्रतिपाती होता है और विपुलमति अप्रतिपाती होता है। यही इन दोनों में अन्तर है। अवधिज्ञान और मनःपर्यायज्ञान प्रत्यक्ष अवश्य हैं, क्योंकि ये दोनों ज्ञान सीधे आत्मा से ही होते हैं । इनके लिए इन्द्रिय और मन की सहायता की आवश्यकता नहीं रहती । किन्तु अवधिज्ञान और मनःपर्यायज्ञान दोनों ही विकल प्रत्यक्ष हैं, जबकि केवलज्ञान सकल प्रत्यक्ष होता है। अवधिज्ञान केवल रूपी पदार्थों का ही प्रत्यक्ष कर सकता है और मनःपर्यायज्ञान रूपी पदार्थों के अनन्तवें भाग मन की पर्यायों का ही प्रत्यक्ष कर सकता है। इसलिए ये दोनों विकल प्रत्यक्ष हैं । पाँच ज्ञानों में पाँचवाँ ज्ञान है - केवलज्ञान। यह ज्ञान विशुद्धतम है । केवलज्ञान को अद्वितीय और परिपूर्ण ज्ञान भी कहा जाता है। आगम की भाषा में इसे क्षायिक ज्ञान कहा जाता है। आत्मा की ज्ञान शक्ति का पूर्ण विकास अथवा आविर्भाव केवलज्ञान है। इसके प्रकट होते ही, फिर शेष ज्ञान नहीं रहते। केवलज्ञान सम्पूर्ण ज्ञान है, अतः उसके साथ मति आदि अपूर्ण ज्ञान नहीं रह सकते। जैन दर्शन के अनुसार केवलज्ञान आत्मा की ज्ञान-शक्ति का चरमविकास है। केवल से बढ़कर अन्य कोई ज्ञान नहीं होता है। इस ज्ञान में अतीत, अनागत और वर्तमान के For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education InternationalPage Navigation
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