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संसार-मुक्ति का हेतु : ज्ञान ७३ भी, जब यह रहते ही हैं, तब फिर संसार के विनाश का क्या अभिप्राय है? भारत के अध्यात्मदर्शी दार्शनिकों ने कैसे कह दिया कि तत्वज्ञान होने पर संसार नष्ट हो जाता है!
प्राचीन आचार्यों ने इस सम्बन्ध में गम्भीर विचार किया है। अपने चिन्तन की चाबी से रहस्य के ताले को खोलने का प्रयल किया है। उन तत्व चिन्तकों ने कहा है, कि आत्मतत्व मूल में एक ही है। उसमें कहीं पर भी नानात्व प्रतीत नहीं होता। आत्मा की औदयिक आदि विविध पर्यायों में और रूपों में केवल उस त्रिकालीज्ञायक स्वभाव रूप एक आत्मरूप का ही ध्यान करो, तथा प्रतिक्षण बदलती हुई अनन्त पर्यायों का जो प्रवाह बह रहा है, उसमें उस एक दिव्य शक्ति की ही खोज करो और अपने अन्दर में यही विचार करो कि हमें उस एक के लक्ष्य पर पहुँचना है।
जैन दर्शन के अनुसार इस विचार को द्रव्य दृष्टि और पारिणामिक भाव कहा जाता है। भेद से अभेद की ओर जाना, खण्ड से अखण्ड की ओर जाना तथा विभाव से स्वभाव की ओर जाना ही, पारिणामिक भाव है। यह जो दृश्यमान जगत है, सुख-दुःख है, मन और इन्द्रियों का भेद है, उससे निकल कर अभेद, अनादि और अनन्त ध्रुव स्वरूप में लीन होना ही वस्तुतः आत्मा का सहज स्वभाव है। ____संसार के जितने भी परिवर्तन हैं, उन सबका आधार भेद-बुद्धि है। जहाँ-जहाँ भेद-बुद्धि है, वहाँ-वहाँ पर्याय और परिवर्तनों का चक्र चलता ही रहता है। जब तक यह भेद-दृष्टि विद्यमान है, तब तक संसार में आत्मा को न सुख है, न सन्तोष है और न शान्ति
प्रत्येक साधक को यह विचार करना चाहिए कि इन पर्याय और रूपों के भेदों में लीन रहना मेरा जीवन-उद्देश्य नहीं है। मेरे जीवन का एक मात्र लक्ष्य यही है, कि मैं अनेक से एक की ओर आगे बढूँ, भेद से अभेद की ओर प्रगति करूँ तथा उदयभाव से निकल कर पारिणामिक भाव की ओर नित्य चलता रहूँ। जहाँ भेद-बुद्धि और पर्यायबुद्धि होती है, वहाँ एकत्व नहीं रहता, अनेकत्व आकर खड़ा हो जाता है। यह अनेकत्व भी क्या है ? इस प्रश्न के समाधान में कहा गया है, कि साधक के जीवन में तन का, मन का, इन्द्रियों का तथा राग एवं द्वेष आदि विकल्पों का ही अनेकत्व है। जैन दर्शन के अनुसार इस अनेकत्व से एकत्व की ओर बढ़ना ही द्रव्य-दृष्टि एवं अभेद दृष्टि है। ___ एक बार एक पुस्तक में मैंने पढ़ा कि भारतीय दर्शन का लक्ष्य एकत्व में अनेकत्व का प्रतिपादन करना है। परन्तु मेरे विचार में यह कथन उचित नहीं है। अनेकत्व की ओर बढ़ना भारतीय संस्कृति और भारतीय दर्शन का मूल उद्देश्य नहीं है। मैं इस तथ्य को स्वीकार करता हूँ, कि जीवन की प्रारम्भिक साधना में कुछ दूर तक यह अनेकत्व हमारा साथ देता है। इस अभिप्राय से वह हमारा साधन हो सकता है, साध्य नहीं हो सकता। साध्य तो एक मात्र एकत्व ही है। अभेद-दृष्टि ही है। जीवन के खण्ड-खण्ड रूपों में एकमात्र अखण्ड रूप को ही देखना, यही भारतीय दर्शन और संस्कृति का मूल रूप है।
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