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मार्गानुसारी के पैंतीस बोल १४३ श्रावक के एकविंशति गुण अपने गुणों का विकास ही अपने जीवन का विकास माना गया है। गुणों की संख्या का पार नहीं होता। जैनधर्म के अनुसार तो प्रत्येक आत्मा में अनन्त गुण होते हैं। अपरिमित गुणों का विकास कैसे करें? उनका जानना और समझना भी कठिन होता है। फिर विकास तो और भी कठिन है। इस समस्या का एक ही समाधान है, कि मुख्य गुणों का विकास हो जाने पर, गौण गुणों का विकास स्वतः हो जाता है। अतएव आचार्य नेमिचन्द्र ने अपने ग्रन्थ प्रवचनसारोद्धार में श्रावकों के एकविंशति मुख्य गुणों का प्रतिपादन किया है। पण्डित आशाधर ने अपने ग्रन्थ सागार-धर्मामृत में सप्तदश मुख्य गुणों का कथन किया है। कहा गया है, कि इन गुणों को धारण करने वाला व्यक्ति ही अणुव्रतों की, गुणव्रतों की और शिक्षाव्रतों की साधना में सफल हो सकता है। श्रावक के एकविंशति गुण इस प्रकार हैं, जैसे कि१. अक्षुद्रता-विशाल दृष्टिकोण २. स्वस्थता ३. सौम्यता ४. लोकप्रियता ५. अक्रूरता ६. अशठता ७. दानशीलता ८. लज्जा-शीलता ९. दया-शीलता १०. पापभीरुता ११. गुणानुराग १२. प्रिय एवं मधुर सम्भाषण १३. मध्यस्थ वृत्ति १४. दीर्घ दृष्टि १५. सत्यभाषिता १६. विनम्रता विनय १७. विशेषज्ञता १८. वृद्धानुगामिता १९. कृतज्ञता २०. परहितकारिता परोपकारिता २१. लब्ध लक्ष्यता अपने साध्य का परिज्ञाता
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