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८. जीवन का नियामक शास्त्र : आचार
भारतीय दर्शन में आचार-शास्त्र दर्शन-शास्त्र का ही एक अंग है। प्रमाण-शास्त्र, तत्त्व-शास्त्र और आचार-शास्त्र-भारतीय-दर्शन में ये तीनों साथ-साथ ही चलते हैं। भारतीय-दर्शन की प्रत्येक शाखा ने अपना प्रमाण-शास्त्र, अपना तत्त्व-शास्त्र और अपना आचार-शास्त्र बनाया है। चार्वाक जैसे नास्तिक-दर्शन में भी ये तीनों अंग परिपूर्ण रूप में हैं। फिर आस्तिक दर्शनों ने तो इन तीनों पर विशेष बल दिया ही है। आचार्य शंकर जैसे एकान्त ज्ञानवादी एवं अद्वैतवादी दर्शन में भी आचार को स्थान मिला है। अतः भारतीय दर्शनों में प्रत्येक दर्शन में ज्ञान, तत्त्व और आचार पर अपनी-अपनी दृष्टि से विचार किया है। पाश्चात्य-दर्शन में ज्ञान-मीमांसा, तत्त्व-मीमांसा और आचार-मीमांसा का समन्वित रूप तो उपलब्ध नहीं होता, किन्तु इन तीनों अंगों पर भिन्न रूप से पर्याप्त लिखा गया है। अनुभववादियों ने ज्ञान पर ही विशेष बल दिया, जबकि तत्त्ववादियों ने तत्त्व की व्याख्या पर ही अपना बल लगाया। आचार-शास्त्र के सम्बन्ध में स्वतन्त्र रूप से अनेक ग्रन्थ उपलब्ध हैं। भारतीय दर्शनों में जिसे आचार-शास्त्र कहा जाता है, पाश्चात्य-दर्शन में उसे नीति-शास्त्र कहा गया है। नीति-शास्त्र के सम्बन्ध में यूनानी दार्शनिकों ने, यूरोपीय दार्शनिकों ने और अमरीकी दार्शनिकों ने अपने दर्शन-ग्रन्थों के साथ नहीं, स्वतन्त्र रूप से ही इस विषय पर ग्रन्थ लिखे हैं। समाज और आचार
आचार शब्द अनेक अर्थों में प्रयुक्त होता रहा है; जैसे-नीति, धर्म, कर्तव्य और नैतिकता। 'धर्म' एक व्यापक शब्द है और आचार शब्द भी उतना ही अधिक व्यापक है। मानव के कर्तव्य के रूप में जिन बातों का अथवा जिन नियमों का होना आवश्यक है, वे सब नियम आचार और धर्म में समाहित हो जाते हैं। जिस युग में मानव जंगलों में रहता था, कुटुम्ब, परिवार और समाज की रचना नहीं हुई थी, उस समय धर्म और आचार के नियमों की भी आवश्यकता नहीं थी। जैसे-जैसे मानव ने विकास किया, वैसे-वैसे उसे सभ्य और सुसंस्कृत बनने के लिए नियमों की आवश्यकता पड़ी। अकेला व्यक्ति जिस पद्धति से रहता है, परिवार, समाज और राष्ट्र में रहने की पद्धति उससे सर्वथा भिन्न प्रकार की होती है। जब मानव कुटुम्ब, परिवार और समाज रूप में बदला, तभी से जीवन को व्यवस्थित बनाने के लिए कुछ नियमों की आवश्यकता हुई। जब कर्तव्य के साथ अधिकार की भावना ने बल पकड़ा, तब अपने अधिकारों के संरक्षण के लिए और दूसरों के अधिकारों में बाधा न डालने के लिए मर्यादा की आवश्यकता पड़ी। यह मर्यादा और यह सीमा ही आगे चलकर नियम रूप में बदली, फिर आचार रूप में और अन्त में धर्म रूप
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