Book Title: Adhyatma Pravachana Part 2
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 145
________________ १४४ अध्यात्म-प्रवचन दिगम्बर परम्परा में, पण्डित आशाधर ने इक्कीस गुणों के स्थान पर सतरह गुणों का कथन किया है। वे सतरह गुण इस प्रकार से कहे गए हैं १. न्याय-नीति से धन का उपार्जन करना २. गुणी के गुणों का आदर करना ३. सत्य - भाषी तथा मितभाषी होना, हितभाषी ४. त्रि-वर्ग का परस्पर विरोध रहित सेवन - धर्म, अर्थ, काम ५. प्रिय-मधुर भाषिणी भार्या होना ६. रहने का योग्य स्थान-न अधिक खुला और न अधिक ढका ७. सज्जन पुरुषों की वसति, आवास स्थान ८. लज्जा-शीलता ९. योग्य एवं समयानुकूल भोजन १०. सदाचार-शीलता ११. ज्ञानी पुरुषों की संगति १२. बुद्धि के आठ गुणों से युक्त होना १३. कृतज्ञता, उपकार को न भूलना १४. इन्द्रिय निग्रह १५. धर्म का श्रवण करना १६. दयाशीलता १७. पापभीरुता पापकृत्य से डरने वाला होना मार्गानुसारी के पैंतीस बोल, श्रावक के इक्कीस गुण एवं सतरह गुणों में संख्या का भेद है, कुछ संज्ञा का भेद है तथा कुछ स्वरूप में भेद अवश्य है। किन्तु अभिप्राय में भेद नहीं है। फलितार्थ सबका एक ही है। व्रतों की साधना से पूर्व कथित गुणों का होना, दोनों ही परम्पराओं को अभीष्ट है। धर्म और अध्यात्म से पूर्व व्यवहार-शुद्धि का होना, और नीति-शुद्धि का होना बहुत आवश्यक माना गया है। मन की मलिनता, वाणी की कर्कशता-कठोरता और शरीर की शिथिलता का दूर होना नितान्त आवश्यक है। यही है, अभ्यास का फल । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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