Book Title: Adhyatma Pravachana Part 2
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 167
________________ १६६ अध्यात्म-प्रवचन व्यतीत करने वाले साधु एवं साध्वी ज्ञानी, ध्यानी एवं तपस्वी तथा संयमी होते थे। साध्वी एवं साधु के लिए यह भी आवश्यक था, कि वह आचारांग सूत्र तथा निशीथ सूत्र का प्रतिदिन स्वाध्याय करें, ताकि वे विस्मृत न हो जायें। यदि ये विस्मृत हो जाते थे, तो उसके लिए कठोर प्रायश्चित्त का विधान भी छेदसूत्रों में है। यदि कोई भिक्षु या भिक्षुणी इसलिए भूल गया है कि वह अस्वस्थ था, रोगी था अथवा दुर्भिक्ष था, उसके लिए प्रायश्चित्त का विधान नहीं है। यदि प्रमत्तभाव से उसने इन शास्त्रों को विस्मृत कर दिया है, तो उस स्थिति में प्रायश्चित्त का विधान है। साधु हो या साध्वी हो, यदि इन दो शास्त्रों का उसने विधिवत् अध्ययन नहीं किया है, तो उसे स्वतन्त्र होकर विहार करने का भी निषेध था। इन दोनों शास्त्रों का परिज्ञाता न होने के कारण उसे आचार्य पद, उपाध्याय पद एवं प्रवर्तक पद तथा प्रवर्तिनी पद नहीं दिया जाता था। साधु जीवन में परिवर्तन ____ प्राचीन-युग से लेकर आज तक के युग में साधु-जीवन में काफी परिवर्तन आ चुका है। खान-पान, रहन-सहन, लेना-देना तथा करना-कराना आदि में प्राचीन युग के नियमों का पूरी तरह परिपालन आज नहीं हो पा रहा है। जैसे कि जैन भिक्षुओं की मन, वचन एवं काय के हिंसा न करने, न करवाने तथा करते हुए का अनुमोदन न करने की प्रतिज्ञा होती है। प्राचीन युग के जैन भिक्षु एवं निर्ग्रन्थ इस प्रतिज्ञा का अक्षरशः पालन करने का प्रयल करते थे। जिस वस्तु को प्राप्त करने में हिंसा की तनिक भी संभावना रहती थी, उस प्रकार की किसी भी वस्तु को वे स्वीकार नहीं करते थे। आचारांग सूत्र एवं छेदसूत्रों को देखने से उनकी यह चर्या स्पष्ट मालूम पड़ जाती है। _इस प्रकार अत्यन्त कठोर आचरण के कारण ये श्रमण धर्मरक्षा के नाम पर अपनी चर्या में किसी प्रकार की ढील नहीं रखते थे। जहाँ कहीं हिंसा या परिग्रह की संभावना होती, उन प्रवृत्तियों का वे परित्याग कर देते थे। यहाँ तक कि शास्त्र-लेखन की प्रवृत्ति को भी उन्होंने स्वीकार नहीं किया। हिंसा एवं परिग्रह की संभावना के-कारण व्यक्तिगत निर्वाण के अभिलाषी इन निस्पृह साधुओं ने शास्त्र-लेखन की प्रवृत्ति की उपेक्षा की। उनकी इस अहिंसापरायणता का उल्लेख बृहत्कल्प नामक छेदसूत्र के भाष्य में स्पष्टतया आज भी उपलब्ध है। उसमें स्पष्ट विधान है कि पुस्तक पास में रखने वाला श्रमण प्रायश्चित्त का भागी होता है। उक्त आगम में बताया गया है कि पुस्तक पास में रखने वाले श्रमण में प्रमत्त दोष उत्पन्न होता है। पुस्तक पास में रहने से स्वाध्याय में प्रमाद की संभावना रहती है। धर्म प्रवचनों को कंठस्थ रखकर उनका बार-बार स्मरण करना स्वाध्याय रूप आन्तरिक तप कहा गया है। पुस्तकें पास रहने से यह तप मन्द होने लगता भगवान महावीर के निर्वाण के बाद साधु संघ के आचार में शिथिलता आने लगी। उसके विभिन्न सम्प्रदाय बनने लगे। सचेलक एवं अचेलक-परम्परा प्रारम्भ हुई। वनवास Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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