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१६४ अध्यात्म-प्रवचन नहीं। इसके विपरीत दिगम्बर परम्परा में वस्तुओं को परिग्रह कहा गया है। जैन परम्परा में सचेलवाद के मूल में परिग्रह ही मुख्य है। स्थानकवासी एवं तेरापंथ सम्प्रदायों में जो आज भेद दृष्टिगोचर होता है, उसका मुख्य आधार हिंसा-अहिंसा की व्याख्या ही रहा है। श्वेताम्बर, दिगम्बर, स्थानकवासी और तेरापंथी-ये सब भेद आचार को लेकर ही मुख्य रूप में प्रचलित हुए हैं। अतः आचार की विस्तृत व्याख्या का जैन परम्परा में होना सहज एवं स्वाभाविक था। आचारांग सूत्र, उसकी नियुक्ति, उसकी चूर्णि और उसकी संस्कृत टीका में आचार के स्वरूप पर अत्यधिक विस्तार से विचार किया गया है। दशवैकालिक सूत्र, उस पर नियुक्ति, उस पर चूर्णि एवं उस पर विविध संस्कृत टीकाओं में आचार का ही मंथन किया गया है। छेदसूत्रों एवं उन पर नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि एवं संस्कृत टीकाओं का, जो एक विशाल साहित्य है, वह सब साध्वाचार को लेकर ही लिखा गया है।
जैन परम्परा में आचार शब्द के अतिरिक्त कल्प और समाचारी शब्द का अर्थ भी आचार ही होता है, फिर भी आचार की अपेक्षा कल्प और समाचारी ये दोनों ही सीमित शब्द हैं तथा इन तीनों के अर्थ में भी पर्याप्त भेद है। वस्तुतः जैन परम्परा में मूल-गुणों को ही अचार कहा गया है। कल्प और समाचारी शब्दों का प्रयोग उत्तरगुणों के लिए किया गया है। मूलगुणों की संरक्षा के लिए जो छोटे-बड़े नियम एवं उपनियम बनाए गये एवं जिनका पालन किया जाता है, वस्तुतः वही कल्प और समाचारी है। द्रव्य, क्षेत्र, काल
और भाव के अनुसार कल्प और समाचारी में पर्याप्त भेद और प्रभेद होते रहे हैं। इसके स्पष्ट प्रमाण आज भी आगमों में उपलब्ध हैं। प्राचीन साध्वाचार
आचारांग-सूत्र में जिस साध्वाचार का वर्णन उपलब्ध है, दशवैकालिक सूत्रगत साध्वाचार में उसकी अपेक्षा काफी विकास हुआ है। इस सत्य को स्वीकार करना ही चाहिए। आचारांग सूत्र के द्वितीय श्रुतस्कन्ध में वस्त्रधारी भिक्षुओं के विषय में विशेष विवेचन आता है। साधुओं के उत्कृष्ट आचार का पालन करने वाले भिक्षु अनेक प्रकार के हैं-एक वस्त्रधारी, द्विवस्त्रधारी, त्रिवस्त्रधारी और बहुवस्त्रधारी। पात्र के सम्बन्ध में भी इसी प्रकार का वर्णन उपलब्ध होता है। आचारांग-सूत्र में भिक्षु एवं भिक्षुणी के लिए पिण्डैषणा, पात्रैषणा, शय्यैषणा आदि का जो विस्तार से वर्णन किया गया है, उस प्रकार के उत्कृष्ट साध्वाचार का वर्णन अन्यत्र दुर्लभ ही है। गोचरी के लिए भिक्षु एवं भिक्षुणी किस कुल में जाएँ और किस कुल में न जाएँ, इसका रोचक वर्णन विस्तार से किया गया है। वृत्तिकारों एवं टीकाकारों ने इनकी व्याख्याएँ विभिन्न प्रकार से की हैं। आचारांग-सूत्र में यह भी कहा गया है कि भिक्षा के लिए जाने वाला भिक्षु अपने सब उपकरण अपने साथ रखकर ही भिक्षा के लिए जाय। भिक्षार्थ एक गाँव से दूसरे गाँव जाते समय भी इसी नियम का पालन किया जाता था।
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