Book Title: Adhyatma Pravachana Part 2
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

View full book text
Previous | Next

Page 156
________________ जीवन का नियामक शास्त्र : आचार १५५ राजनीतिशास्त्र मनुष्य के आन्तरिक पहलू से भी सम्बन्धित है, पर बाह्य रूप ही प्रधान विचारे जाते हैं। राजनीतिशास्त्र का उद्देश्य है-अधिकांश मनुष्यों को सुख देना। इसका सम्बन्ध समुदाय से है और आचारशास्त्र का व्यक्ति से। व्यक्ति का सुख ही इसका लक्ष्य है। इसका अर्थ यह नहीं है कि व्यक्ति और समुदाय विरोधक हैं, वास्तव में दोनों पूरक हैं। हर राजनीतिशास्त्र में सामुदायिक पहलू का और आचारशास्त्र में वैयक्तिक पहलू का अधिक विचार किया जाता है। राजनीति समुदाय के सम्मिलित व्यवहार को देखती है, आचारशास्त्र मनुष्य की व्यक्तिगत क्रियाओं को। दोनों के दृष्टिकोणों में भी भेद हैं। किसी समुदाय के लिए कौन-सा कार्य लाभदायक होगा यह बताना राजनीतिशास्त्र का लक्ष्य है। आचारशास्त्र में बाह्य लाभ का प्रश्न नहीं उठता। यह आवश्यक नहीं है कि जो कार्य लाभदायक हो वह नैतिक दृष्टि से भी उचित हो। राज्य के नियम दण्ड और पुरस्कार के डर तथा प्रलोभन द्वारा लागू होते हैं। आचारशास्त्र के नियम का पालन बाह्य डर तथा प्रलोभनों से नहीं होता है। यदि केवल दण्ड के डर से ही कोई सदा सत्य बोले तो नैतिक दृष्टि से उसका महत्त्व नहीं है। आचारशास्त्र का क्षेत्र राजनीतिशास्त्र से अधिक व्यापक है। राजनीतिक नियमों की भी नैतिक परीक्षा होती है। आचारशास्त्र और धर्मशास्त्र (Theology) धर्मशास्त्र धर्म के सिद्धान्तों की मीमांसा है। धर्म का अर्थ है-मानव शक्ति से उच्चतर किसी शक्ति में विश्वास! यह शक्ति इन्द्रियगोचर नहीं, पर मानव संवेग से उदासीन भी नहीं है। धर्म का सबसे विकसित रूप एक सर्वशक्तिशाली, अन्तर्यामी, सर्वज्ञानी व्यक्ति-रूप ईश्वर का विचार करना है। धर्मशास्त्र ईश्वर-प्राप्ति को ही मानव जीवन का चरम लक्ष्य विचारता है। अतः यह उस लक्ष्य की प्राप्ति के विषय में बतलाता है, इसलिए दोनों शास्त्रों में बड़ा घनिष्ठ सम्पर्क है। बहुत से दार्शनिकों ने आचारशास्त्र को धर्मशास्त्र के अधीन माना है। उनके अनुसार धर्म ही नीति (morality) का मूल है। (Descares, Locke, Duns Scotus)| धर्म के नियम ही नैतिक नियम हैं। हमारे वैसे ही आचार नैतिक कहे जा सकते हैं, जो धर्म के नियमों के अनुसार हों। ईश्वर की इच्छा पर ही उचित और अनुचित निर्भर है। जिसे वह आदिष्ट करता है, वही उचित और जिसका निषेध, वह अनुचित होता है। ईश्वर अपनी इच्छाओं का पालन दण्ड के भय और पुरस्कार के प्रलोभन से कराता है। यह मत मान्य नहीं प्रतीत होता। धार्मिक विचार मनुष्य-जीवन के पिछले भाग में उदय होते हैं। पर बाल्यकाल ही से सत्य और असत्य का ज्ञान आरम्भ हो जाता है। यदि धार्मिक विचार ही नैतिक विचारों का साधन होता तो ऐसी बात नहीं होती। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170