Book Title: Adhyatma Pravachana Part 2
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 159
________________ १५८ अध्यात्म-प्रवचन आचार-हीन है तो उसका तिरस्कार ही होगा। आचार-हीन व्यक्ति को न वेद पवित्र कर सकते हैं, न आगम एवं पिटक ही। भारत के जन-जीवन में सदा से ही आचार की प्रतिष्ठा रही है। अतः श्रुति, स्मृति, आगम एवं पिटकों में आचार की ही गरिमा तथा महिमा रही है और आज भी है। वैदिक परम्परा का आचार, जैन परम्परा का चारित्र और बौद्ध परम्परा का विनय-भावनात्मक रूप में ये तीनों एक ही अर्थ की अभिव्यक्ति करते हैं। परन्तु पद्धति तीनों की एक नहीं रही है। कारण यह है कि तीनों का आधारभूत तत्त्व अलग-अला है। एक का आधार है वेद, दूसरे का आधार है आप्त और तीसरे का आधार है, बुद्ध । वेद, तीर्थंकर और बुद्ध ही भारतीय आचार के मापदण्ड रहे हैं। वेद किसी भी व्यक्ति विशेष का नाम नहीं है। तीर्थंकर और बुद्ध निश्चय ही व्यक्ति विशेष हैं। वेद अपौरुषेय है। अतः उसमें विहित कर्म भी अपौरुषेय ही होगा। उसका अर्थ है-नित्य, सनातन, सदाकालीन। तीर्थंकर के अनुयायी और बुद्ध के अनुगामी-इस व्यवस्था को स्वीकार नहीं करते। तीर्थंकर-आचीर्ण आचार को ही वे चारित्र कहते हैं। बुद्ध-आसेवित आचार को ही वे विनय कहते हैं। तीर्थंकर और बुद्ध-दोनों ही अपनी परम्परा में आप्त पुरुष हैं। आप्त की वाणी ही आगम एवं पिटक हैं। आगम और पिटक में निहित जो भी कर्म अथवा क्रिया है, वह चारित्र एवं विनय है। विहित कर्म आचार है, और निषिद्ध कर्म अनाचार। अनाचार कभी धर्म नहीं हो सकता। वह तो अधर्म ही है। अतः जो कुछ वेद-विहित है, तीर्थंकर-आचीर्ण है तथा बुद्ध-आचरित है, वह सब आचार है, शेष सभी अनाचार है। भारतीय आचार पद्धति की इस व्यवस्था एवं परम्परा को ही भारतीय आचार-शास्त्र कहा गया है। ___ भारतीय आचारशास्त्र के तीन प्रवाह रहे हैं-वैदिक आचार, जैन चारित्र और बौद्ध विनय। आचार शब्द बहुअर्थी एवं बहुआयामी रहा है, अतः आगम, पिटक एवं श्रुति-स्मृति शास्त्र में परिव्याप्त है। चारित्र एवं विनय शब्द का प्रयोग भी सर्वत्र दृष्टिगोचर होता है। विनय शब्द का प्रयोग वैदिक शास्त्र में एवं जैन शास्त्र में अन्य अर्थों में है; केवल आचार धर्म में नहीं। बौद्धशास्त्र में यह केवल आचार अर्थ में प्रयुक्त होता है। अतः यह एक पारिभाषिक शब्द है। ____ भारतीय आचारशास्त्र के मूलभूत ग्रन्थ तीन हैं-स्मृति, आचारांग और विनयपटिक। स्मृति वेद का अनुगमन करती है। आचारांग चरम तीर्थंकर महावीर की प्रथम देशना है। विनयपिटक बुद्ध के अनुभूत शिक्षापद हैं। वैदिक परम्परा का मूल आधार है-वर्ण व्यवस्था, आश्रम व्यवस्था और यज्ञ-होम।अन्य शेष सब इसी का विस्तार है। जैन परम्परा का मूल आधार है-अहिंसा। अन्य व्रत नियम केवल अहिंसा के ही आयाम हैं। अहिंसा का ही विस्तार है-तप और संयम। अमृषावाद, अस्तेय, अकाम, और अपरिग्रह-ये सब अहिंसा के ही परिजन-परिवार हैं। अहिंसा के ही अस्तित्व में इन सबका अस्तित्व है। अतः अहिंसा ही जैन आचार है। बौद्ध परम्परा का मूल आधार है-अष्टांग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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