Book Title: Adhyatma Pravachana Part 2
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

View full book text
Previous | Next

Page 142
________________ ७. मार्गानुसारी के पैंतीस बोल श्रावक व्रत ग्रहण करने से पहले श्रावक बनने की भूमिका तैयार करनी चाहिए। भवन के निर्माण के पूर्व ही उसकी आधारशिला रखना परम आवश्यक होता है। चित्र बनाने के पूर्व भित्ती को स्वच्छ एवं साफ किया जाता है। शिल्प कला का यह नियम होता है, कि मूर्ति तैयार करने के पूर्व मूर्तिकार प्रस्तर पर हथौड़ा और छेनी चलाकर उसको तराशता है, तभी उसमें से सुन्दर मूर्ति प्रकट होती है । जीवन के निर्माण का भी यही सिद्धान्त है, कि उसको खोदना पड़ता है, स्वच्छ करना होता है, तराशना पड़ता है, तभी उसमें से शील की शालीनता, चारित्र के चन्दन की महक और सुन्दर आचार की सुषमा फूट निकलती है। इसके लिए तीन बातों का होना आवश्यक है, जैसे कि (क) मार्गानुसारी जीव के बोल (ख) श्रावक बनने योग्य गुण (ग) तत्व-त्रय पर अगाध आस्था आचार्य हरिभद्र ने स्व-रचित धर्म बिन्दु प्रकरण ग्रन्थ में और आचार्य हेमचन्द्र ने स्व-प्रणीत योग- शास्त्र में मार्गानुसारी के पैंतीस बोलों का प्रतिपादन किया है। मार्गानुसारी का अर्थ है, मार्ग का अनुसरण करने वाला जीव । वे पैंतीस बोल इस प्रकार से हैं १. न्याय एवं नीति से धन का उपार्जन करे २. शिष्ट पुरुषों के आचार की प्रशंसा करे ३. कुल-शील में तुल्य एवं भिन्न गोत्र में विवाह करे ४. पाप कार्यों से भयभीत रहे ५. प्रसिद्ध देशाचार का पालन करे ६. किसी की भी निन्दा न करे, विशेषतः राजा की ७. जो स्थान न एकदम खुला हो, न ढका हो, वहाँ पर घर बनाए ८. घर से बाहर निकलने के द्वार बहुत-से नहीं होने चाहिए ९. शीलवान् पुरुषों की संगत में रहे १०. माता-पिता की सेवा-भक्ति करे ११. जहाँ चित्त शान्त न रहे, उस स्थान में वास न करे १२. निन्दनीय कार्य में प्रवृत्ति न करे १४१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170