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श्रावक का सम्यक्त्व व्रत १३९
मिथ्यात्व का फल प्रकाश का विरोधी अन्धकार है, शीत का विरोधी ताप है, पुण्य का विरोधी पाप है, ज्ञान का विरोधी अज्ञान है, धर्म का विरोधी अधर्म है, और सम्यक्त्व का विरोधी मिथ्यात्व है। आचार्य हेमचन्द्र सूरि ने मिथ्यात्व का लक्षण इस प्रकार किया है, कि अदेव को देव मानना, अगुरु को गुरु मानना और अधर्म को धर्म मानना-निश्चय ही मिथ्यात्व है। योग-शास्त्र में, आचार्य ने कहा है कि मिथ्यात्व ही परम रोग है, परम अन्धकार है, परम शत्रु है, और परम विष है। मिथ्यात्व का लक्षण :
अध्यात्म सार ग्रन्थ में कहा गया है, कि जो व्यक्ति छह बातों को मानता है, वह मिथ्यात्वी कहा गया है। वह इन छह बातों पर विश्वास नहीं करता। लोक, सिद्ध, तर्कसिद्ध, शास्त्र-सिद्ध और अनुभव-सिद्ध, इन छह बातों को स्वीकार न करने वाला मिथ्यात्वी होता है। अध्यात्म सार ग्रन्थ में, प्रबन्ध ४ में श्लोक ६ में षट् पद ये हैं
१. नास्ति–अर्थात् आत्मा नहीं है २. न नित्य-वह नित्य नहीं है ३. न कर्ता-वह कर्ता नहीं है ४. न भोक्ता-वह भोक्ता नहीं है ५. न मोक्ष-मोक्ष नहीं है ६. न उपाय-मोक्ष का उपाय नहीं है
आत्मा प्रमाण-सिद्ध है, तर्क-सिद्ध है और अनुभव-सिद्ध भी है। लेकिन मिथ्यात्वी आत्मा की सत्ता को स्वीकार नहीं करता। शरीर,जो कि पञ्चभूतात्मक है, उसी को आत्मा कहता है। अतः आत्मा नित्य भी नहीं है, क्योंकि शरीर तो नष्ट होता, देखा जाता है। वह कर्म का कर्ता भी नहीं है। कर्म फल का भोक्ता भी नहीं है। संसार तो प्रत्यक्ष है, इन्द्रिय-गम्य है, लेकिन उसका प्रतिपक्ष मोक्ष नहीं है, क्योंकि जब वह बन्ध ही नहीं, तब मोक्ष किसका? अतः मोक्ष नहीं है। उसका उपाय अर्थात् मार्ग एवं साधन भी नहीं है। क्योंकि जब साध्य ही नहीं, तब साधन किसका और कैसा? जिस व्यक्ति को आत्मा की सत्ता पर और उसकी नित्यता पर विश्वास नहीं होता, वह मिथ्यात्वी होता है।जो आत्मा को कर्म का कर्ता, और कर्म फल का भी भोक्ता नहीं मानता, वह मिथ्यात्वी होता है। जो व्यक्ति संसार के प्रतिपक्षीभूत मोक्ष को और उसके उपाय एवं साधन को नहीं मानता, वह मिथ्यात्वी होता है। जिसमें सत्य के विपरीत धारणा हो, वह मिथ्यात्व है, और जिसमें मिथ्यात्व हो, वह मिथ्यात्वी होता है। मिथ्यात्व का फल :
मिथ्यात्व अनन्त संसार का कारण है। जन्म और मरण का कारण है। दारुण दुःख का कारण है। एक आचार्य का कथन है, कि जैसे शरीर में काँटा गड़ने से दुःख होता है, वैसे ही आत्मा का शल्य अर्थात् काँटा मिथ्यात्व होता है। मिथ्यात्व के साथ में माया और निदान अर्थात् भोग-लालसा भी आत्मा के शल्य हैं। तीनों को निकाल फेंकने पर ही शान्ति और
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