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श्रावक का सम्यक्त्व व्रत १३७
सम्यक्त्व के अतिचार :
सम्यक्त्व के पाँच अतिचार होते हैं। ये सम्यक्त्व को मलिन बनाते हैं। ये सम्यक्त्व के दोष हैं। श्रावक इनको समझले, पर इनका आचरण कभी न करे। पाँच अतिचार इस प्रकार से हैं१. शंका
२. कांक्षा ३. विचिकित्सा
४. पर पाषण्ड प्रशंसा ५. पर पाषण्ड संस्तव
अध्यात्म साधना के फल में संदेह करना। मोक्ष की सत्ता में अविश्वास करना, लोक और परलोक को स्वीकार न करना-यह शंका अतिचार है। अपने धर्म के व्रत, नियम और संयम को कठोर एवं कठिन समझ कर दूसरे सम्प्रदायों में इधर-उधर भटकना-यह कांक्षा अतिचार है। लम्बे समय तक भी साधना करने पर उसका फल न मिलने पर, फल में सन्देह करना, इसका फल मुझे मिलेगा, कि नहीं मिलेगा-यह विचिकित्सा अतिचार है। किसी अन्य सम्प्रदाय के प्रपञ्ची तथा पाखण्डी धर्म गुरु की ऋद्धि, सिद्धि और थोथे चमत्कार की बात सुनकर उससे प्रभावित हो जाना, उसका अनुगामी हो जाना-यह पर पाषण्ड प्रशंसा अतिचार है। ढोंगी धर्म गुरु के पास स्वयं बार-बार जाना, और दूसरे भोले लोगों को लेजाकर पथ-भ्रष्ट करना-यह पर पाषण्ड संस्तव अतिचार है।
श्रावक के पाँच अभिगम एकादश अंगों में, भगवती सूत्र, जिसका अपर नाम, व्याख्या-प्रज्ञप्ति भी कहा जाता है, उसे पञ्चम अंग सूत्र भी कह सकते हैं, उसके द्वितीय शतक के पञ्चम उद्देशक के सूत्र १०९ में, पञ्च अभिगमों का वर्णन किया गया है। अभिगम शब्द का अर्थ है-संमुख जाना, सामने जाना। किसके संमुख जाना, किसके अभिमुख होना, किसके उन्मुख होना? धर्मगुरु के संमुख जाना, और धर्मस्थान के अभिमुख जाना। जहाँ भगवान् तीर्थंकर धर्म देशना करते हैं, उस समवसरण भूमि की ओर जाना, श्रमण-श्रमणी गुरु जहाँ उपदेश देते हों, प्रवचन करते हों, वहाँ जाने को अभिगम कहते हैं। आज की भाषा में, मन्दिर उपाश्रय
और स्थानक की ओर जाना। वहाँ पहुँचने से पूर्व, उसमें प्रवेश करने पूर्व, पाँच अभिगमों का परिपालन करना, परम आवश्यक माना गया है। जैसे कि
१. सचित्त द्रव्य का त्याग करना २. अचित्त द्रव्य का त्याग करना ३. उत्तरासंग करना ४. गुरु के संमुख होते ही हाथ जोड़ना ५. मन को एकाग्र करके प्रवचन सुनना
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