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श्रावक के चार शिक्षा-व्रत ११५ करना, परम आवश्यक होता है। अणुव्रत अर्थात् मूलव्रत तथा गुणव्रत जीवन में एक बार ही ग्रहण किए जाते हैं, जबकि शिक्षाव्रत बार-बार ग्रहण करने योग्य होते हैं। अणुव्रत
और गुणव्रत जीवन भर के लिए होते हैं, किन्तु शिक्षाव्रत अल्पकाल के लिए होते हैं। जैसे कि सामायिक व्रत केवल ४८ मिनट के लिए होता है। देश का अवकाश भी रोज-रोज करना होता है। दिशा व्रत में जो मर्यादा की थी, उसका अनुदिन संक्षेप करना होता है। पोषध भी एक पक्ष में दो बार किया जाता है। वह रोज करने का नहीं है। पोषध एक बहुत ऊँची साधना है, इसमें श्रावक श्रमणभूत हो जाता है। श्रमण जैसी साधना करता है। सर्व सावध व्यापारों का परित्याग कर देता है। वह साधना भी २४ घंटे की एवं ३६ घंटे तक चलती है। उस स्थिति में श्रावक को श्रमणभूत अर्थात् श्रमण तुल्य कहा गया है। अतिथि की सेवा एवं सत्कार करना भी शिक्षाव्रत है। क्योंकि इस में अपने भोजन में से अतिथि का संविभाग किया जाता है। इससे दान एवं त्याग की शिक्षा मिलती है।
श्रावक का सामायिक व्रत चार शिक्षाव्रतों में से सामायिक व्रत प्रथम शिक्षाव्रत है। सामायिक शब्द में दो पद हैंसम और आय। दोनों के संयोग से समाय शब्द बनता है, फिर सामायिक बन जाता है। यह व्याकरण की प्रक्रिया है। सम का अर्थ है-समता एवं समभाव। आय का अर्थ है- लाभ एवं प्राप्ति। जिस साधना से समभाव अथवा विषमता मिटकर समता की प्राप्ति होती है, उस साधना का नाम वस्तुतः सामायिक व्रत है। समभाव का क्या अर्थ होता है ? उत्तर में कहा गया है, कि जो त्रस और स्थावर, सभी जीवों पर समत्व भाव रखता है, वह सामायिक व्रत का आराधक होता है। सामायिक में मन की शुद्धि, वचन की शुद्धि और काय की शुद्धि अपेक्षित है। जिसका शरीर भी स्वस्थ हो, और मन भी स्वस्थ हो, वही इस व्रत की साधना करने में सफल होता है। तीनों योग विशुद्ध हों तभी उसका अध्यात्म लाभ प्राप्त होता है। निर्दोष साधना ही फलवती मानी जाती है। सामायिक व्रत के अतिचारः
अन्य व्रतों की भाँति सामायिक व्रत के भी पाँच अतिचार होते हैं, जो इस प्रकार हैं१. मनोदुष्प्रणिधान
२. वचो दुष्प्रणिधान ३. काय दुष्प्रणिधान
४. स्मृति अकरण ५. अनवस्थित करण (क) मन से राग-द्वेषात्मक अथवा कषाय भाय का अर्थात् क्रोध, मान, माया और लोभ का अनुचिन्तन करना। दुश्चिन्तन करना।
(ख) याणी से सावध वचन बोलना। अश्लील वचन और अपशब्द कहना। मिष्टवाक् न बोलकर, कटुवाक् बोलना। मीठा बोल न बोलना।
(ग) काय से सावध क्रिया करना। किसी को मारना, पीटना और पीड़ा देना। शरीर :: से व्यर्थ की चेष्टा करना। किसी प्राणी का पात करना।
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