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एकादश प्रतिमा : उपासक की उच्चतर साधना १२७ उपासक दशांग सूत्र में प्रतिमा वर्णन :
एकादश अंग सूत्र में उपासक दशा सूत्र सप्तम अंग है। इसके दश अध्ययनों में से प्रथम अध्ययन में, प्रसिद्ध आनन्द श्रावक का और उसकी धर्मपत्नी शिवा का वर्णन विस्तार से किया गया है। श्रावक के सम्यक्त्वमूलक पञ्च अणुव्रत, तीन गुणव्रत, चार शिक्षाव्रत और श्रावक जीवन की उच्चतर एवं उत्कृष्टतर साधना एकादश प्रतिमाओं का वर्णन भी किया गया है। अन्त में संलेखना व्रत का भी वर्णन किया है। प्रतिमा, प्रतिज्ञा, श्रेणि, पद और भेद-विभाग-ये सब एकार्थक शब्द हैं। प्रतिमाओं का काल :
१. प्रथम प्रतिमा का काल एक मास है। २. द्वितीय प्रतिमा का काल दो मास है। ३. ततीय प्रतिमा का काल तीन मास है। ४. चतुर्थ प्रतिमा का काल चार मास है। ५. पञ्चम प्रतिमा का काल पाँच मास है। ६. षष्ठ प्रतिमा का काल छह मास है। ७. सप्तम प्रतिमा का काल सात मास है। ८. अष्टम प्रतिमा का काल आठ मास है। ९. नवम प्रतिमा का काल नव मास है। १०. दशम प्रतिमा का काल दस मास है। ११. एकादशम प्रतिमा का काल एकादश मास है।
इस प्रकार समस्त प्रतिमाओं का पूरा काल पाँच वर्ष तथा छह मास होता है। प्रत्येक प्रतिमा के धारण से पहले उपासक के द्वारा पूर्व की प्रतिमा का यथाकाल, यथानियम, यथाविधि, यथाकल्प, और यथासूत्र, उसका अनुपालन करना चाहिए। उपासक को उसकी साधना में सदा सावधान, सजग, सचेत और अप्रमत्त रहना, परम आवश्यक है। साधनाकाल में, जो भी अनुकूल अथवा प्रतिकूल उपसर्ग और परीषह आ जाए, तो उसे शान्त, प्रशान्त एवं उपशान्त चित्त से सहन करना चाहिए। समभाव से सहन करने पर श्रावक के कर्मों की निर्जरा होती है।
१. दर्शन प्रतिमा-जीव और अजीव सप्त तत्व तथा नव पदार्थों पर यथार्थ श्रद्धान होना, सम्यग्दर्शन है, सम्यक्त्व है। जब उपासक सम्यग्दर्शन का निरतिचार अर्थात् शंका-कांक्षा आदि दोषों से रहित होकर, निर्दोष रूप में पालन करता है, तब उसके दर्शन प्रतिमा कही जाती है।
२.व्रत प्रतिमा-दर्शन प्रतिमा का पूरा अभ्यास कर लेने के बाद, उसका काल पूरा हो जाने पर श्रावक व्रत प्रतिमा को स्वीकार करता है। निरतिचार रूप में, पाँच अणुव्रत, तीन
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