Book Title: Adhyatma Pravachana Part 2
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 134
________________ श्रावक की दिनचर्या १३३ को नितान्त आवश्यक माना है । मनु ने अपनी स्मृति में दश नियमों का विधान किया है। बौद्ध परम्परा में पञ्चशील, अष्ट शील और दश शीलों का विधान किया गया है। जैन परम्परा के आचार-शास्त्र में श्रमण के दश धर्मों का विधान किया गया है । दश यति-धर्म जैन परम्परा में प्रसिद्ध हैं। श्रावक के लिए चतुर्दश नियमों का विधान है। यम का अर्थ हैव्रत व्रतों का ग्रहण जीवन में एक बार किया जाता है, जो जीवन भर के लिए होते हैं। नियम वह है, जो प्रति दिवस स्वीकार किए जाते हैं। केवल दिन भर के लिए। इन चतुर्दश नियमों में छोटे-बड़े सभी प्रकार के नियम हैं। इनको रोज-रोज स्वीकार करने से और उनका अनुपालन करने से मनुष्य में त्याग भावना बढ़ती है। धर्म का लक्ष्य है, कि मनुष्य htभोग से त्याग की ओर ले जाए। चतुर्दश नियम इस प्रकार हैं १. सचित्त त्याग २. द्रव्य ३. विकृति ५. ताम्बूल ७. कुसुम ९. शयन ११. ब्रह्मचर्य ४. उपानत् ६. वस्त्र Jain Education International ८. वाहन १०. विलेपन १२. दिशा १३. स्नान जल १४. भक्त गृहस्थ जीवन में सचित्त वस्तु का सर्वथा त्याग नहीं हो सकता, उसका मयादा को जाती है। जैसे कि फल, फूल, मूल, कच्चा जल- इनकी मर्यादा करे। द्रव्य में, रोटी, दाल और भात आते हैं। विकृति, वह है, जो शरीर में विकार उत्पन्न करे। जैसे कि दूध, दही, घी और तेल। मक्खन महाविकृति है । मदिरा और मांस का तो जैन धर्म में सर्वथा ही प्रबल निषेध किया गया है। जूतों की भी मर्यादा करे। चमड़े के जूते न पहने। पहनने-ओढ़ने तथा बिछाने के वस्त्रों की मर्यादा करे। खाने का पान ताम्बूल कहा जाता है। उसकी भी मर्यादा करे । कुसुम की माला की मर्यादा करे। माला से शृंगार बुद्धि उत्पन्न होती है। फूल और इतर की मर्यादा करे। वाहन दो प्रकार के होते हैं-सचित्त और अचित्त । जैसे कि घोड़ा, हाथी एवं ऊँट आदि सचित्त होते हैं । जहाज, मोटर एवं रेल आदि अचित्त होते हैं। इनकी भी मर्यादा करे। श्रमण को वाहन का सर्वथा त्याग होता है। वह तो पाद - विहार ही करता है । शयन का अर्थ है - पलंग, खाट और बिछौना आदि की मर्यादा करे। विलेपन का अर्थ हैचन्दन, उबटन, तेल आदि की मर्यादा करे। श्रावक को पर-नारी और वेश्या आदि के सेवन का सर्वथा त्याग होता है। अपनी पत्नी के साथ भी मर्यादित मैथुन का सेवन करे। पर्व तिथियों पर श्रावक ब्रह्मचर्य का परिपालन करे। दिशाओं में जाने-आने की मर्यादा भी करे । स्नान जल का अधिक खुलकर, व्यर्थ ही सचित्त जल एवं अचित्त जल का भी दुरुपयोग न करे । भक्त-पान का अर्थ है - खान-पान अर्थात् भोजन और पीने का पानी की भी मर्यादा करे। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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