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श्रावक के चार शिक्षा-व्रत १२३ (ख) पर लोक में, अनागत जीवन में देव बनने की अभिलाषा करना। द्वितीय अतिचार है। संथारा में देव सुखों की अभिलाषा नहीं करनी चाहिए।
(ग) अपनी प्रशंसा, पूजा तथा सत्कार होता देखकर, अधिक काल तक जीवित रहने की और पूजा-सत्कार पाने की अभिलाषा करना, तृतीय अतिचार है।
(घ) संथारा में अपनी प्रशंसा होती न देखकर, और भूख-प्यास के परीषह से आकुल-व्याकुल होकर शीघ्र मरण ही अभिलाषा करना, चतुर्थ अतिचार है।
(ङ) आगामी भव में मनुष्य सम्बन्धी और देव सम्बन्धी काम एवं भोग प्राप्त करने की अभिलाषा करना, पञ्चम अतिचार है।
श्रावक तथा श्रमण जीवन की यह अतिकठोर एवं अति कठिन साधना है। इसमें किसी भी प्रकार का चित्त विकार और तीव्र इच्छा नहीं होनी चाहिए। मोह-ममता का त्याग होने पर चित्त शान्त, प्रशान्त तथा उपशान्त होना चाहिए।
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