Book Title: Adhyatma Pravachana Part 2
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

View full book text
Previous | Next

Page 125
________________ ४. एकादश प्रतिमा : उपासक की उच्चतर साधना जैन-शास्त्र की परिभाषा में गृहस्थ व्यक्ति को अगार एवं अगारी, सम्यग्दृष्टि और अणुव्रती कहते हैं। किन्तु उसके विशिष्ट नाम हैं-उपासक एवं श्रावक श्रावक की साधना तीन प्रकार की है (अ) नीति (ब) धर्म (स) अध्यात्म १. नीति में, रीति और व्यवहार की गणना की जाती है। जीवन में लोक-नीति तथा लोक-व्यवहार की नितान्त आवश्यकता है। सर्व प्रथम मनुष्य का व्यवहार देखा जाता है। व्यवहार बहुत स्थूल होता है। अतः सर्वप्रथम उस पर ही नजर टिकती है। व्यवहार एवं नीति में तीन बात होती हैं (क) बोल-चाल (ख) रहन-सहन (ग) खान-पान २. धर्म से अभिप्राय है, मनुष्य के आचार-विचार से। आचार और विचार दोनों मनुष्य की छवि के निर्माता हैं। आचार है, बाहर का जीवन और विचार है, अन्तर् का जीवन। विचार बीज है, तो आचार अंकुर। आचार-विचार का समन्वित रूप धर्म कहा जाता है। ३. अध्यात्म का अर्थ है-आत्म-गत। आत्मा से संबद्ध को अध्यात्म कहा जाता है। नीति उच्च है, धर्म उच्चतर है और अध्यात्म उच्चतम है। अतःजीवन के तीन विभाग हैंनीतिमान् जीवन, धर्मवान् जीवन और अध्यात्म जीवन। श्रावक के नीतिमय जीवन में सप्त व्यसन का परित्याग। श्रावक के एक-विंशति गुण। श्रावक के पञ्चत्रिंशत् बोल, मार्गानुसारी के बोल। धर्ममय जीवन में पञ्च अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतों की गणना की जाती है। श्रावक की अध्यात्ममयी साधना हैएकादश प्रतिमाओं की। प्रतिमा की परिभाषा: प्राकृत का पडिमा शब्द, संस्कृत भाषा में प्रतिमा है। इसके दो अर्थ होते हैं-मूर्ति एवं प्रतिज्ञा। यहाँ प्रतिज्ञा अर्थ ही घटित होता है। प्रतिज्ञा का अर्थ है-संकल्प विशेष, अभिग्रह १२४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170