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२. श्रावक के तीन गुण-व्रत
श्रावकाचार में, श्रावक के पञ्च अणुव्रतों का कथन किया जा चुका है। द्वादश व्रतों में तीन गुणव्रत भी हैं। गुण का अर्थ है- विशेषता एवं विशिष्टता। ये तीन गुणव्रत, पञ्च मूलगुणों में विशेषता उत्पन्न करने वाले हैं। विशेषता का क्या अर्थ है ? उत्तर में कहा जाता है, कि ये तीनों गुणव्रत मूल व्रतों का विशेष विकास करते हैं। उनका संगोपन और संरक्षण भी करते हैं। उनमें शिथिलता आ जाने पर उन्हें दृढ़ करते हैं। आचार - शास्त्र में गुणव्रत तीन माने गए हैं
(क) दिशा - परिमाण व्रत
(ब) उपभोग- परिभोग-परिमाण व्रत
(स) अनर्थ दण्ड विरमण व्रत
श्रावक के पञ्च मूल गुणों की रक्षा करने से, विकास करने से तथा अभिवृद्धि करने व्रत संज्ञा सार्थक है। आचार्यों का एक विचार यह भी है, कि अणुव्रतों की भावना के रूप में इनका कथन किया गया है। गुणव्रतों की साधना से अथवा परिपालना से अणुव्रतों अथवा मूलव्रतों की रक्षा विशेष रूप में सुगम एवं सुबोध हो जाती है। आचार्य घासीलाल जी महाराज ने उपासकदशांग सूत्र की स्व-प्रणीत टीका में गुणव्रत की परिभाषा इस प्रकार की है - " व्रतान्तर - परिपालनेन साधकतमानि व्रतानि, गुण-व्रतानि कथ्यन्ते ।” अर्थात् अन्य व्रतों के अनुपालन करने में, जो साधकतम अर्थात् अतिशय साधक होते हैं, उन्हें गुणव्रत कहा गया है।
१. दिशा परिमाण व्रत- अपनी त्याग वृत्ति के अनुसार, व्यवसाय तथा व्यापार की प्रवृत्ति के निमित्त दिशाओं की सीमा निश्चित करना - दिशा परिमाण व्रत है। इस गुणव्रत से परिग्रह परिमाण रूप पञ्चम अणुव्रत की रक्षा होती है । दिशाओं की मर्यादा निश्चित हो जाने पर, तृष्णा का एवं इच्छा का नियन्त्रण सहज-सरल हो जाता है। तृष्णा कम होने पर संग्रह कम होगा, और संग्रह कम होने पर परिग्रह कम होगा। दिशा - परिमाण व्रत, इच्छा परिमाण व्रत की ही एक भावना है, गुण विशेष है।
दिशा - परिमाण व्रत के अतिचार:
दिशा परिमाण व्रत के पाँच अतिचार होते हैं, जो इस प्रकार से हैं
(क) ऊर्ध्व दिशा परिमाण अतिक्रमण
(ख) अधो दिशा परिमाण अतिक्रमण
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