________________
आचार मीमांसा १०५ विरमण कहा गया है। साधक जीवन में शील व्रत का होना, परम आवश्यक होता है। जब श्रावक मैथुन सेवन की स्वदार सन्तोष मर्यादा करता है, तब उसमें स्वतः ही पर-दार-त्याग, वेश्या-त्याग, कन्या-त्याग का ग्रहण हो जाता है।
स्थूल मैथुन विरमण के पाँच अतिचार:
अन्य व्रतों की भाँति चतुर्थ अणुव्रत के भी पाँच अतिचार होते हैं, जो इस प्रकार हैं(क) इत्यरिक परिगृहीता-गमन
(ख) अपरिगृहीता - गमन
(ग) अनंग-क्रीड़ा
(घ) पर - विवाह करण
(ङ) काम भोग- तीव्र अभिलाषा
१. जो स्त्री पर -दार कोटि में नहीं आती, उसको धन का लोभ देकर, कुछ समय के लिए अपनी बना लेना, स्वदार कोटि में ले आना, फिर उसके साथ काम भोग का सेवन करना, इत्वरिक परिगृहीता गमन कहा जाता है । इत्वर का अर्थ है- अल्प काल । परिग्रहण का अर्थ है - स्वीकार । गमन का अर्थ है-काम-भोग का सेवन ।
२. जो स्त्री अपने लिए अपरिगृहीत अर्थात् अस्वीकृत है, उसके साथ काम भोग का सेवन करना, अपरिगृहीता गमन कहा गया है। इस कक्षा में, उन स्त्रियों का समावेश किया जाता है, जिनका अभी विवाह नहीं हुआ, केवल सम्बन्ध हुआ है। जो अभी तक कन्या है। जो स्त्री वेश्या का व्यवसाय करती है । जो स्त्री अपने पति के द्वारा परित्यक्ता है । या फिर जिसने अपने पति को छोड़ दिया है। जिसका पति पागल हो गया हो। जो अपने घर की दासी हो । यह अपरिगृहीता गमन रूप अतिचार होता है।
३. कन्या-दान में पुण्य समझ कर, अथवा तो मोह-ममतावश एवं राग भाव से दूसरों के लिए वर-वधू की खोज करके विवाह कराना। यह पर विवाह करण अतिचार है। अपने पुत्र तथा पुत्री का विवाह करना, तो श्रावक के अपने कर्तव्य में आ जाता है। वह अतिचार रूप नहीं है ।
४. जिस किसी भी स्त्री के साथ क्रीड़ा करना, काम चेष्टा प्रदर्शित करना । आलिंगन करना, चुम्बन लेना। हस्त कर्म करना । संघर्षण मैथुन करना, नाभि मैथुन करना । कृत्रिम साधनों से कामाचार का सेवन करना । ये सब अनंग -क्रीड़ा अतिचार के अर्न्तगत आते हैं।
५. पाँच इन्द्रियों में से नेत्र और श्रोत्र के विषय - रूप और शब्द को काम कहा जाता है। क्योंकि इनसे कामना तो होती है परन्तु भोग नहीं होता । घ्राण, रसन एवं स्पर्शन के विषय - गन्ध, रस एवं स्पर्श भोग कहे जाते हैं। क्योंकि भोग इन्हीं से होता है । काम और भोग में अत्यन्त आसक्ति रखना, काम भोग तीव्र अभिलाषा अतिचार कहा जाता है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org