Book Title: Adhyatma Pravachana Part 2
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 100
________________ आचार मीमांसा ९९ है । उसकी अहिंसा भी वीर्यवती होती है, उसकी अहिंसा बलवती होती है | अहिंसा बलवान् का धर्म है। श्रावक किसी पर अन्याय नहीं करता, परन्तु अपने पर होने वाले अन्याय को भी वह सहन नहीं कर सकता। वीर्य - हीनता एवं कायरता, अहिंसा नहीं हो सकती । अनीति, अन्याय, अत्याचार एवं विषमाचार को सहना अहिंसा नहीं कहा जा सकता। स्थूल अहिंसा व्रत के अतिचार प्रत्येक स्वीकृत व्रत के चार दूषण होते हैं- अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार और अनाचार । स्वीकृत व्रत को तोड़ने छोड़ने का संकल्प, अतिक्रम दोष माना गया है। व्रत को तोड़ने की साधन-सामग्री तैयार करना, व्यतिक्रम का दोष है। व्रत को अंश में, खण्डित करना एवं अंश में, पालन करना, अतिचार दोष है। व्रत को पूर्ण रूप में, तोड़ देना एवं छोड़ देना, अनाचार दोष है। प्रत्येक व्रत के ये चार दोष होते हैं। किसी व्यक्ति ने व्रत किया, प्रतिज्ञा की, कि मैं रसाल फल का सेवन नहीं करूँगा। परन्तु आम्र फल की ऋतु आने पर, लोगों को खाते देखकर और उनके रंग-रूप तथा रस और सुरभि से प्रभावित 'होकर आम्र फल को खाने का अपने मन संकल्प कर लेता है, विचार कर लेता है। फिर खाने की खोज-खबर करने लगता है। फिर पहले लुक-छुप कर खाता है, और अन्त में निस्संकोच होकर खाने-पीने लगता है। ये ही अनुक्रम से अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार और अनाचार दोष है । स्वीकृत अहिंसा व्रत को छोड़ने का अतिक्रम अर्थात् उल्लंघन करना, तोड़ने की योजना बनाना, व्यतिक्रम अर्थात् उलट-पलट कर देना । अहिंसा का कभी पालन करना, और कभी न करना । व्रत का अंश रूप में ही पालन करना, अतिचार अर्थात् आचार की मर्यादा का लोप करना । व्रत का सर्वथा ही पालन न करना, अर्थात् भंग कर देना। अनाचार अहिंसा अणुव्रत के अतिचारः जैन धर्म का मुख्य आचार है- अहिंसा । अन्य समस्त व्रत उसके परिपोषक हैं। अहिंसा के पाँच अतिचार हैं, पाँच दोष हैं। उन दोषों का परित्याग करना, श्रावक का परम कर्तव्य हो जाता है। १ . बन्ध - इसका अर्थ है, बाँधना। अपना बन्धन किसी को पसन्द नहीं होता। किसी को उसकी इच्छा के विरुद्ध रोककर रखना। घर में काम करने वाले, दुकान पर काम करने वाले और कारखाने में तथा कार्यालय में काम करने वाले कर्मकरों को समय की अवधि से अधिक समय तक रोक रखना। ये सब बन्ध के प्रकार हैं। २. वध - इसका अर्थ है, मारना, पीटना, पीड़ा देना तथा नाना प्रकार का शारीरिक अथवा मानसिक कष्ट देना। ये सब वध के प्रकार हैं। ३. वृत्तिच्छेद - इसका अर्थ होता है - किसी की आजीविका को छीन लेना। किसी की रोजी-रोटी में बाधा डालना। किसी का व्यापार बन्द करा देना। नौकरी छुड़ा देना । ये सब Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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