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९८ अध्यात्म-प्रवचन बढ़ाते हैं। वे मूलगुणों का संगोपन, संरक्षण और संपोषण भा करते हैं। श्रावक के पाँच मूलगुण एवं अणुव्रत इस प्रकार हैं
१. स्थूल प्राणातिपात विरमण २. स्थूल मृषावाद विरमण ३. स्थूल अदत्तादान विरमण ४. स्वदार-सन्तोष व्रत ५. इच्छा परिमाण व्रत (क) प्रथम अणुव्रत का स्वरूप चार शब्दों से अभिव्यक्त किया गया है-स्थूल, प्राण, अतिपात और विरमण। प्राण का अर्थ है,जीवन शक्ति प्राण के दश भेद हैं-पञ्च इन्द्रिय, तीन बल अर्थात् मनोबल, वचोबल और कायबल, श्वास-प्रश्वास और आयुष्य। अतिपात का अर्थ है-घात करना एवं नष्ट करना। दश प्राणों में से यदि किसी का भी घात किया जाता है, तो वह हिंसा है। उस हिंसा से अलग हो जाना, विरमण है, विरति है, संयम है। श्रमण की अपेक्षा, श्रावक का हिंसा से विरमण स्थूल है। क्योंकि श्रावक षट्काय के एक इन्द्रिय वाले जीवों की हिंसा का सर्वथा त्याग नहीं कर सकता। पाँच स्थावर अर्थात् पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय और वनस्पतिकाय के जीवों की हिंसा की मर्यादा करता है, एक सीमा बाँध लेता है। अतः श्रावक का हिंसा-त्याग स्थूल है। इसके विपरीत श्रमण का हिंसा-त्याग सूक्ष्म है। क्योंकि वह षट्काय के जीवों की हिंसा का त्याग पूर्णतया करता है। अतः श्रावक का प्रथम अणुव्रत-स्थूल प्राणातिपातविरमण व्रत कहा गया है, शास्त्रों में।
श्रमण की सर्व हिंसा विरति की अपेक्षा से श्रावक की स्थूल हिंसा विरति, देशविरति कही जाती है। श्रावक अहिंसा व्रत का अंश रूप में पालन करता है। श्रमण अहिंसा व्रत का पूर्ण रूप में पालन करता है। क्योंकि वह मन से, वचन से और काय से किसी भी प्राणी अर्थात् त्रस एवं स्थावर की हिंसा न करता है, न करवाता है और न करने वाले का अनुमोदन करता है। इस प्रकार श्रमण, हिंसा का त्याग तीन योग और तीन करण से करता है। योग का अर्थ है-मन, वचन और काय का व्यापार। करण का अर्थ होता हैकृत, कारित और अनुमोदित। उसका त्याग सर्वविरति कहा गया है-सव्वाओ पाणाइवायाओ वेरमणं अर्थात् सर्व प्रकार की हिंसा का सर्वथा परित्याग करता हूँ। स्थूल
और सूक्ष्म हिंसा को छोड़ता हूँ। श्रमण सापराधी व्यक्ति की भी हिंसा नहीं करता। श्रावक निरपराधी व्यक्ति की हिंसा तो नहीं करता लेकिन सापराधी की हिंसा कर सकता है। क्योंकि उसे अपनी रक्षा करनी होती है। अपने परिवार, समाज और राष्ट्र की भी रक्षा करनी होती है। अतः अपराधी को दण्ड देना होता है, अन्यथा, वह अधिक दुस्साहसी हो जाएगा। अपनी बहन-बेटी के शील की रक्षा का दायित्व भी उस पर होता है। अपनी सत्ता, संपत्ति और संपदा का संरक्षण उसे करना होता है। अतः श्रावक कायर नहीं, वीर होता
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