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९६ अध्यात्म-प्रवचन धर्म। वर्णाचार और आश्रमाचार, जैन संस्कृति में मान्य नहीं है। क्योंकि किसी भी वर्ण का
और किसी भी आश्रम में स्थित व्यक्ति श्रावक के व्रत तथा श्रमण के व्रत ग्रहण करने में स्वतन्त्र है। उसे किसी प्रकार का प्रतिबन्ध नहीं है।
श्रावक के अणुव्रत होते हैं। श्रमण के महाव्रत होते हैं। अणुव्रत को देशविरति और महाव्रत को सर्वविरति भी कहते हैं। श्रावक का व्रत सागार अर्थात् आगार सहित होता है। श्रमण का व्रत अनगार आगार रहित होता है। श्रावक समस्त बन्धनों से विमुक्त नहीं हो पाता। क्योंकि उसके साथ परिवार है, परिजन हैं, समाज है और राष्ट्र है। उसे इनके प्रति कर्तव्यों का पालन करना होता है। श्रमण घर-बार के समस्त बन्धनों से विमुक्त हो जाता है। वह आत्म-साधना में तल्लीन रहता है। आत्म-चिन्तन में एकाग्र होकर रहता है। श्रावकाचार
श्रावक के दो भेद हैं-सम्यग्दृष्टि और देशव्रती। श्रावक को उपासक, श्रमणोपासक, अणुव्रती, देशव्रती और गृहस्थ साधक कहते हैं। गुणस्थान की अपेक्षा से वह चतुर्थ गुणस्थान स्थित तथा पञ्चम गुणस्थान स्थित होता है। वह श्रद्धापूर्वक श्रमणों से निर्ग्रन्थ प्रवचन का श्रवण करने से श्रावक कहा गया है। श्रमणों का अनुगमन करने से श्रमणोपासक कहा जाता है। अपूर्ण चारित्र का पालन करने से देशव्रती कहलाता है। लघु व्रतों का पालन करने से अणुव्रती कहा गया है। देश-विरत और देश-संयमी भी कहा जाता है। चतुर्थ गुणस्थान स्थित अविरत सम्यग्दृष्टि श्रावक कहा गया है। क्योंकि वह आगार में अर्थात् घर में रहता है। अतः उसकी गृहस्थ संज्ञा भी है। उसके व्रत-नियम-संयम में कुछ छूट होने से वह सागार कहा गया है। श्रावकाचार के ग्रन्थों में, उपासक धर्म का कथन तीन प्रकार से किया जाता है
१.द्वादश व्रतों के आधार पर। २. एकादश प्रतिमाओं के आधार पर। ३.पक्ष, चर्या एवं आस्था के आधार पर।
उपासक-दशांग सूत्र में, तत्वार्थ-सूत्र में और रन-करण्ड श्रावकाचार में, सम्यक्त्व-पूर्वक तथा संलेखना-सहित द्वादश व्रतों के आधार पर श्रावक-धर्म का प्रतिपादन किया गया है।
आचार्य कुन्दकुन्द के चारित्र-प्राभृत में, स्वामी कार्तिकय के अनुप्रेक्षा ग्रन्थ में और वसुनन्दि के श्रावकाचार ग्रन्थ में एकादश प्रतिमाओं के आधार पर श्रावक धर्म का कथन किया गया है।
पण्डित आशाधर ने आपने सागार धर्मामृत ग्रन्थ में पक्ष, निष्ठा एवं साधन को आधार बनाकर श्रावक धर्म का अर्थात् श्रावक आचार का वर्णन किया है। जैन ग्रन्थों में श्रावकाचार का कथन तीन पद्धतियों के आधार पर उपलब्ध होता है।
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