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१. आचार-मीमांसा
संसार के समस्त धर्म सम्प्रदायों ने अपने-अपने शास्त्र के अनुसार, आचार, चारित्र तथा व्रत, नियम और संयम को स्वीकार किया है। भारत के तीन प्रसिद्ध धर्म हैं-वैदिक, जैन और बौद्ध । शेष समस्त सम्प्रदायों का तीन में समावेश हो जाता है। एशिया के अन्य धर्मों में चीन का कन्फ्यूसियस धर्म, जापान का शिन्तो धर्म और ईरान का पारसी धर्म भी आचार-संहिता को मानता है। अरबियन धर्म तीन हैं-यहूदी, ईसाई और इस्लाम। ये तीनों भी अपनी-अपनी आचार-संहिता का अनुपालन करते हैं। अरबियन लोग भी अपने मनोनीत आचार का पालन करते हैं। मानव-मात्र किसी न किसी धर्म को किसी न किसी रूप में मानते हैं। अपने विचार के अनुरूप उनका आचार भी होता है। क्योंकि धर्म विश्वास करने भर की वस्तु नहीं है, तदनुरूप आचरण भी किया जाता है। धर्म हो, और आचरण न हो, यह तो सम्भव ही नहीं है।
मनुष्य मही मण्डल पर कहीं पर भी रहता है, धर्म के बिना उसका जीवन चल नहीं सकता। मनुष्य जीवन की आवश्यकता-रोटी, कपड़ा और मकान भर नहीं हो सकती। इनसे आगे और उच्चतर भी बहुत शेष रह जाता है। रोटी से भरा पेट, कपड़ों से सजा शरीर, तथा सरदी, गरमी और बरसात से बचाने वाले मकान में रहकर भी मनुष्य असन्तुलित एवं असंतुष्ट देखा जाता है। अतःजीवन का उच्चतर आदर्श उसे ऊपर उठने की प्रेरणा प्रदान करता है। मनुष्य उसको पाने का प्रयत्न सतत करता रहता है। क्या है, वह उच्चतर ध्येय? जिसको प्राप्त करने के लिए मनुष्य जाति सादा से व्यग्र रही है? वह है, अमरता। मिटने की आकांक्षा किसी के भी अन्तर में नहीं होती। अपनी सत्ता सबको प्रियतर है, मधुरतर है, सुन्दरतर है। सत्ता शाश्वत रहे, यही है, अमरता। मनुष्य अमर होना चाहता है। __भारत के ऋषि, मुनि और संन्यासियों ने इस अमरता तथा सत्ता की शाश्वतता को मुक्ति, मोक्ष और निर्वाण की संज्ञा प्रदान की है। उसके तीन साधन हैं-विश्वास, विचार
और आचार। विश्वास उतरता है, विचार में और विचार बनता है, आचार में। व्यावहारिक जीवन में भी इन तीनों की आवश्यकता है; अन्यथा तो व्यक्ति बिखर जाएगा। परिवार बन न सकेगा। समाज की सत्ता ही नहीं रहेगी। बीज नहीं तो अंकुर कैसा? अंकुर नहीं, तो वृक्ष कैसा? वृक्ष नहीं तो फल कैसा? फल के अभाव में रस की निष्पति कहाँ पर हो? अतः जीवन की उच्चतर साध्य-सिद्धि के लिए ही नहीं, व्यवहार-जीवन को सुखद बनाने के लिए भी विश्वास, विचार और आचार की परम आवश्यकता है।
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