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प्रमाण और तर्क ७९ संसार का विनाश हो सकता है। निश्चय ही एक बार सम्पूर्ण रूप से जब यह आत्मा औदयिक भाव से विमुक्त हो जाता है और अपने विशुद्ध पारिणामिक भाव में पहुँच जाता है, तब संसार का एक भी बन्धन इसमें रह नहीं सकता। जब-जब दृष्टि पारिणामिक भाव में रहती है, तब-तब हम मुक्ति में रहते हैं, और जब-जब दृष्टि उदयभाव में रहती है, तबतब हम संसार में निवास करते हैं। जब हम शरीर में आत्मा का दर्शन करते हैं, तब हम देह-बुद्धि में रहते हैं, परन्तु जब स्व-स्वरूप में लीन हो जाते हैं, तब संसार के रहते हुए भी, यह संसार हमारे लिए ओझल हो जाता है। मेरे कहने का अभिप्राय यह है, कि आत्मा के विशुद्ध ज्ञान में संसार का दुःख एवं क्लेश नहीं रहने पाता।
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