________________
७८ अध्यात्म-प्रवचन तब वह आग नजर आता है। किन्तु इस बात को ध्यान में रखिए कि अपने मूल स्वभाव से पानी सदा ही शीतल है और उस समय भी शीतल है, जबकि उसमें उष्णता का संयोग रहा
यही सिद्धान्त आत्मा के सम्बन्ध में भी है। जब आत्मा में उदयभाव की ओर दृष्टि रहती है, तब संसार खड़ा हो जाता है, किन्तु दृष्टि जब आत्मा के स्वभाव की ओर जाती है, तब आत्मा का बन्धन-मुक्त एवं अखण्ड स्वभाव सर्वत्र नजर आता है। उदयभाव की ओर देखने पर बन्ध नजर आता है और स्वरूप की ओर दृष्टि जाने पर आत्मा का विशुद्ध पारिणामिक भाव तथा चैतन्य स्वरूप दीख पड़ता है। जब-जब दृष्टि पारिणामिक भाव की ओर जाती है, तब-तब उदयभाव के रहते हुए भी आत्मा को उसके बन्ध रूप की प्रतीति नहीं होती है। यदि आप बन्ध को महत्व नहीं देना चाहेंगे, तो ज्ञान में उसका कोई महत्व नहीं रहेगा।
मेरे कहने का अभिप्राय यह है, कि सारा का सारा खेल दृष्टि का है। सबसे बड़ी बात यह देखना है कि आपकी दृष्टि क्या है ? यदि आपकी दृष्टि विशुद्ध पारिणामिक भाव में है, तब संसार में कहीं पर भी आपको बन्धन नहीं है। इसके विपरीत यदि आपकी दृष्टि
औदयिक भाव में अटकी हुई है, तो इस संसार में कदम-कदम पर सर्वत्र आपको बन्धन ही बन्धन मिलेंगे।
मैं आपसे यह कह रहा था, कि यह संसार क्या है ? उसका स्वरूप क्या है ? इस सम्बन्ध में मैंने जो कुछ कहा है, वह आपने सुना होगा और उसे समझने का प्रयल भी किया होगा। बात यह है कि सुनने को आप बहुत कुछ सुन लेते हैं, किन्तु उसके अनुसार जीवन को बनाने का प्रयत्न नहीं होता, इसलिए हमारा ज्ञान पोथी-पन्नों तक ही सीमित रह जाता है, वह जीवन की धरती पर उतर कर पनपने नहीं पाता। __ मैंने आपसे अभी कहा था, कि संसार को बदलने का प्रयत्न मत कीजिए, प्रयल कीजिए, अपने मन को बदलने का। मन बदल गया तो सब कुछ बदल गया। यदि मन नहीं बदला, तो कुछ भी नहीं बदला। मन को बदलने का अर्थ है-बुद्धि को भेद से हटाकर अभेद की ओर लगाना, बुद्धि को अनेकत्व से हटाकर एकत्व की ओर ले जाना और आत्मा को औदयिक भाव से हटाकर पारिणामिक भाव में स्थिर करना। अपने स्वरूप को पाने का और संसार को नष्ट करने का इससे सुन्दर अन्य कोई मार्ग नहीं है। अपने स्वरूप में स्थिर हो जाने का अर्थ यही है, कि संसार-सागर से पार हो जाना।
संसार में जितने भी दुःख एवं क्लेश हैं, उन सबका आधार द्वैत-बुद्धि ही है। जब तक यह द्वैत बुद्धि दूर नहीं होगी, तब तक संसार का नाश नहीं होगा। द्वैत-बुद्धि का अर्थ हैवह बुद्धि, जिसमें अपने स्वरूप पर विश्वास न होकर पर-पदार्थ पर विश्वास होता है। यदि एक बार भी उस आनन्दमय चिदाकार अखण्ड ज्योति की अनुभूति करली जाए, जो अनादिकाल से उदय भाव के कारण ओझल थी, तो फिर एक क्षण में ही इस दुःखमय
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org