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अध्यात्म-प्रवचन
है | धारणा के पर्यायवाची रूप में प्रतिपत्ति, अवधारण, अवस्थान और अवबोध आदि शब्दों का प्रयोग किया जाता है। धारणा के सम्बन्ध में कहा गया है कि ज्ञान की अविच्युति को धारणा कहते हैं। जो ज्ञान शीघ्र नष्ट न होकर चिरस्थायी रह सके और स्मृति का हेतु बन सके वही ज्ञान धारणा है।
धारणा के तीन भेद हैं- अविच्युति, वासना और अनुस्मरण । अविच्युति का अर्थ है - पदार्थ के ज्ञान का विनाश न होना । वासना का अर्थ है- संस्कार का निर्माण होना और अनुस्मरण का अर्थ है, भविष्य में प्रसंग मिलने पर उन संस्कारों का स्मृति रूप में उद्बुद्ध होना ।
यहाँ पर मैंने संक्षेप में मतिज्ञान के चार मुख्य भेदों के स्वरूप को बताने का प्रयत्न किया है। शास्त्र में और बाद के दर्शन ग्रंथों में मतिज्ञान के अन्य भी बहुत से भेदों का वर्णन किया गया है। मेरे विचार में ज्ञान के भेद प्रभेदों में न उलझ कर उसके मर्म एवं रहस्य को
समझने का प्रयत्न होना चाहिए। आपको यह समझना चाहिए, कि मतिज्ञान क्या है और उसके क्या कारण हैं तथा जीवन में उस मतिज्ञान का उपयोग और प्रयोग कैसे किया जा सकता है ?
पाँच ज्ञानों में दूसरा ज्ञान है - श्रुतज्ञान । श्रुतज्ञान क्या है ? यह अतीव विचारणीय प्रश्न है । मतिज्ञानोत्तर जो चिन्तन-मनन के द्वारा परिपक्व ज्ञान होता है, वह श्रुतज्ञान है। इसका यह अर्थ है कि इन्द्रिय एवं मन के निमित्त से जो ज्ञानधारा प्रवाहित होती है, उसका पूर्वरूप मतिज्ञान है, और उसी का मन के द्वारा मनन होने पर जो अधिक स्पष्ट उत्तररूप होता है, वह श्रुतज्ञान है। यह श्रुतज्ञान का दार्शनिक विश्लेषण है।
प्राचीन आगम की भाषा में श्रुतज्ञान का अर्थ है - वह ज्ञान, जो श्रुत से अर्थात् शास्त्र से सम्बद्ध हो । आप्त पुरुष द्वारा प्रणीत आगम या अन्य शास्त्रों से जो ज्ञान होता है, उसे श्रुतज्ञान कहते हैं । श्रुतज्ञान मतिपूर्वक होता है ।
श्रुतज्ञान में अन्य ज्ञानों की अपेक्षा एक विशेषता है। चार ज्ञान मूक हैं, जबकि श्रुतज्ञान मुखर है। चार ज्ञानों से वस्तु स्वरूप का परिबोध तो हो सकता है, किन्तु वस्तु स्वरूप का कथन नहीं हो सकता । वस्तुस्वरूप के कथन की शक्ति श्रुतज्ञान में ही होती है। क्योंकि श्रुतज्ञान शब्दप्रधान होता है।
श्रुतज्ञान के दो भेद हैं- द्रव्यश्रुत और भावश्रुत। श्रुत का ज्ञानात्मक रूप भावश्रुत है और शब्दात्मकरूप द्रव्यश्रुत है। श्रुतज्ञान के अन्य प्रकार से भी भेद किए गए हैं। उसमें मुख्य भेद दो हैं - अंगबाह्य और अंगप्रविष्ट । आवश्यक आदि के रूप में अंगबाह्य अनेक प्रकार का होता है और अंगप्रविष्ट के आचारांग आदि द्वादश भेद होते हैं । श्रुतज्ञान के अन्य भेद किए जाते हैं, किन्तु यहाँ पर उसके मूल भेदों का ही कथन कर दिया गया है।
यहाँ एक प्रश्न होता है कि श्रुतज्ञान मतिपूर्वक ही क्यों होता है ? उक्त प्रश्न के समाधान में कहा गया है, कि श्रुतज्ञान के लिए शब्द श्रवण आवश्यक है, क्योंकि शास्त्र
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