Book Title: Adhyatma Pravachana Part 2
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 44
________________ नय-वाद ४३ नैगमनय पदार्थ को सामान्य, विशेष और उभयात्मक मानता है, नैगमनय तीनों और चारों निक्षेपों को मानता है, तथा नैगमनय धर्म और धर्मी दोनों को ग्रहण करता है । इसी आधार पर दर्शन ग्रन्थों में नैगमनय के सम्बन्ध में यह कहा गया है कि दो पर्यायों की, दो द्रव्यों की तथा द्रव्य और पर्याय की प्रधान एवं गौण भाव से विवक्षा करने वाले नय को नैगमनय कहते हैं । नैगमनय के दो भेद हैं- सर्वग्राही और देशग्राही । क्योंकि शब्द का प्रयोग दो ही प्रकार से हो सकता है - एक समान्य अंश की अपेक्षा से और दूसरा विशेष अंश की अपेक्षा से । सामान्य अंश का आधार लेकर प्रयुक्त होने वाले नय को सर्वग्राही नैगमनय कहते हैं। विशेष अंश का आश्रय लेकर प्रयुक्त होने वाले नय को देश-ग्राही नैगमनय कहते हैं । उदाहरण के लिए, जब हम यह कहते हैं कि 'यह घड़ा है' यहाँ पर यह विवक्षा नहीं की जाती कि 'यह घड़ा' चाँदी का है, सोने का है अथवा पीतल का है अथवा वह सफेद है या काला है, तो यह सर्वग्राही सामान्य दृष्टि है । किन्तु जब यह कहा जाता है, कि 'यह चाँदी का घट है, यह सोने का घट है और यह पीतल का घट है, अथवा यह सफेद है या काला है,' तो यह कथन पूर्व की अपेक्षा विशेषग्राही हो जाता है। जब दृष्टि विशेष की ओर न जाकर सामान्य तक ही रहती है, तब उसे सर्वग्राही नैगम नय कहा जाता है। इसके विपरीत जब दृष्टि विशेष की ओर जाती है, तब उसे देशग्राही नैगम-नय कहा जाता है। एक दूसरे प्रकार से नैगमनय के तीन भेद किए गए हैं- भूत नैगमनय, भावी नैगमनय और वर्तमान नैगमनय । अतीत काल का वर्तमान काल में संकल्प भूत नैगमनय है। जैसे यह कहना कि आज 'महावीर जयन्ती है।' यहाँ आज का अर्थ है - वर्तमान दिवस, लेकिन उसमें संकल्प हजारों वर्ष पहले के दिन का किया गया है। भविष्य का वर्तमान में संकल्प करना भावी नैगमनय है । जैसे अरिहन्त को सिद्ध कहना । यहाँ पर भविष्य में होने वाली सिद्ध पर्याय को वर्तमान में कह दिया गया है। किसी कार्य को प्रारम्भ कर दिया गया हो, परन्तु वह अभी तक पूर्ण नहीं हुआ हो, फिर भी उसे पूर्ण कह देना, वर्तमान नैगमनय है । जैसे यह कहना कि 'आज तो भात बनाया है'। यद्यपि भात बना नहीं है, फिर भी उसे बना हुआ कहना। इस प्रकार नैगम नय के विविध रूपों का उल्लेख प्राचीन ग्रन्थों में किया गया है। सात नयों में दूसरा नय है-संग्रह । वस्तु के विशेष से रहित द्रव्यत्व आदि सामान्यमात्र को ग्रहण करने वाला विचार संग्रह नय है। जैसे कि जीव कहने से नारक, तिर्यंच, मनुष्य, देव और सिद्ध सब का ग्रहण हो जाता है । संग्रहनय एक शब्द के द्वारा अनेक पदार्थों को भी ग्रहण करता है । अथवा एक अंश या अवयव का नाम लेने से समग्र गुण और पर्याय से सहित वस्तु को ग्रहण करने वाला विचार संग्रह नय है । जैसे किसी सेठ ने अपने सेवक को आदेश दिया कि 'दातुन लाओ' । दातुन शब्द को सुनकर वह सेवक अपने स्वामी को केवल दातुन ही नहीं देता, बल्कि साथ में जीभी, पानी का लोटा और हाथ पोंछने के लिए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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