Book Title: Adhyatma Pravachana Part 2
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 59
________________ ५८ अध्यात्म-प्रवचन हैं, परन्तु उनसे किसी प्रकार का कर्मबन्ध नहीं होता। अतः सिद्ध है कि ज्ञान बन्ध का हेतु नहीं है। मैं आपसे ज्ञानगुण के सम्बन्ध में चर्चा कर रहा था और यह कह रहा था, कि ज्ञाता ज्ञान के द्वारा पदार्थों को जानता है। किन्तु जानने के तरीके दो प्रकार के हैं- प्रत्यक्ष और परोक्ष। जैनदर्शन के अनुसार यह विश्व षद्रव्यात्मक है। छह द्रव्यों के अतिरिक्त संसार अन्य कुछ भी नहीं है। संसार का जो कुछ भी खेल है, वह सब षड्द्रव्यों का ही है। षड्द्रव्य इस प्रकार हैं-जीव, अजीव, धर्म, अधर्म, आकाश और काल। इन छह द्रव्यों में जीव ज्ञाता भी है और ज्ञेय भी है और शेष द्रव्य मात्र ज्ञेय हैं। ज्ञाता में ज्ञेय पदार्थ प्रतिक्षण झलकते रहते हैं। अन्तर इतना ही है, कि केवलज्ञानी उन ज्ञेय पदार्थों को पूर्ण प्रत्यक्ष रूप में जानता है, जबकि श्रुतज्ञानी शास्त्र के आधार पर उन्हें परोक्ष रूप में जानता है। एक बात यहाँ पर और ध्यान में रखनी चाहिए कि इन षड्द्रव्यों में से प्रत्येक द्रव्य एक होकर भी अनन्त है। क्योंकि जैनदर्शन में प्रत्येक वस्तु को अनन्त धर्मात्मक माना गया है। जिज्ञासा होती है, कि वस्तु के अनन्त धर्म कौन से हैं ? इसके उत्तर में कहा गया है, कि वस्तु के गण और पर्याय ही वस्तु के धर्म है। और गुण तथा पर्याय प्रत्येक वस्तु के अनन्त ही होते हैं। इस दृष्टि से एक वस्तु भी अपने आप में अनन्त है। श्रुतज्ञानी श्रुतज्ञान के आधार पर परोक्ष रूप में द्रव्यों को जान सकता है, किन्तु उनकी अनन्त पर्यायों को नहीं जान सकता। सान्तज्ञान से अनन्त पर्यायों को कैसे जाना जा सकता है ? अनन्त को जानने के लिए ज्ञान भी अनन्त ही चाहिए। इसी अभिप्राय से यह कहा गया है कि केवलज्ञानी ही अपने अनन्त ज्ञान में समग्र द्रव्यों को और उनकी समस्त पर्यायों को जानता है। केवलज्ञान के अतिरिक्त शेष जितने भी ज्ञान हैं, उनसे सीमित रूप में ही पदार्थों का परिज्ञान होता है। ___ कल्पना कीजिए, आपके समक्ष सरसों का एक विशाल ढेर पड़ा हुआ है। आप उस ढेर को देखकर यह तो जान सकते हैं, कि यह सरसों का ढेर है, परन्तु उन सरसों के दानों की संख्या कितनी है, यह आप नहीं बतला सकते। जब आप और हम सरसों जैसे स्थूल वस्तु का भी पूर्ण ज्ञान नहीं कर सकते, तब एक-एक द्रव्य की अनन्त-अनन्त पर्यायों का ज्ञान हम कैसे कर सकते हैं ? इसी प्रकार मनुष्यों के समूह को देखकर हम यह कहते हैं, कि यह समाज है अथवा सभा है ? एक मनुष्य के एक शरीर का ज्ञान हो जाता है, किन्तु उसके अनन्त-अनन्त परमाणुओं का ज्ञान करना हमारे वश की बात नहीं है। जैन दर्शन के अनुसार सावरण ज्ञान ससीम होता है, और निरावरण ज्ञान असीम होता है। केवलज्ञान ही निरावरण ज्ञान है। इसी से उससे वस्तु के अनन्त गुण पर्यायों का परिज्ञान होता है। ज्ञान के साथ पदार्थों का क्या सम्बन्ध है ? यह भी एक जटिल प्रश्न है। पदार्थ का ज्ञान के साथ विषय-विषयी भाव सम्बन्ध है। ज्ञान विषयी है और पदार्थ विषय है। ज्ञान के साथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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