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६६ अध्यात्म-प्रवचन
निश्चय नय में शरीर, इन्द्रिय और मन भी नहीं झलकता है, क्योंकि वे आज हैं तो कल नहीं हैं, वे अनादि, अनन्त एव त्रिकाली नहीं है। आत्मा की जो बदलने वाली अवस्था जिसका आदि है, और अन्त भी है, वह निश्चय नय में दिखलाई नहीं पड़ती है। उसमें केवल आत्मा के त्रिकाली, अखण्ड, अनादि एवं अनन्त स्वरूप का दर्शन ही होता है। निश्चय नय में आत्मा का विभाव भाव परिलक्षित नहीं होता है, केवल आत्मा का शुद्ध स्वभाव ही उसमें परिलक्षित होता है। निश्चय नय के स्वरूप का वर्णन करते हुए कहा गया है, कि आत्मा की जो अवस्था बन्ध और कर्म के स्पर्श से रहित है, जहाँ किसी प्रकार का भेद नहीं है और जिसमें किसी भी प्रकार का विकार प्रतिबिम्बित नहीं होता है, आत्मा की उस विशुद्ध दशा का नाम ही निश्चय नय है। वस्तुतः इस निश्चय नय की शुद्ध प्रतीति को ही परम शुद्ध सम्यक्त्व कहते हैं। यह अवस्था आत्मा की विशुद्ध अवस्था है। - संसार कर्मों का ही एक खेल है। आत्मा का बद्धरूप, स्पृश्य रूप, भेद रूप और अनियत रूप तो साधारण दृष्टि में झलकता है, परन्तु आत्मा अबद्ध है, अस्पृश्य है, अभिन्न है और नियत है-इस प्रकार इसके विशुद्ध स्वरूप का परिबोध जब तक नहीं हो पाएगा, तब तक आत्मा अपने भव-बन्धनों से विमुक्त नहीं हो सकेगा। जहाँ भेद और विकल्प रहते हैं, वहाँ निश्चय नय नहीं होता। निश्चय नय वहीं होता है, जहाँ किसी भी प्रकार का भेद और किसी भी प्रकार का विकल्प नहीं रहने पाता। निश्चय नय की देह, कर्म, इन्द्रिय और मन आदि से परे एकमात्र विशुद्ध आत्म-तत्व पर ही एकाग्रतारूप दृष्टि रहती है।
जैन-साधना का लक्ष्य राग-द्वेष आदि विकारों पर विजय प्राप्त करना है। कर्मों का जो उदय भाव है, वह निश्चय दृष्टि का लक्ष्य नहीं है। इन्द्रियों का विषय और मन का विषय भी आत्मा का अपना स्वरूप नहीं है। यह सब औदयिक भाव है, जो कर्मों के उदय से प्राप्त होता है। निश्चय दृष्टि सम्पन्न व्यक्ति इसे कभी भी अपना स्वरूप नहीं मानता है । जैन दर्शन का लक्ष्य व्यवहार नय को लाँघ कर उस परम विशुद्ध निर्विकार स्थिति तक पहुँचना है, जहाँ न किसी प्रकार का क्षोभ रहता है और न किसी प्रकार का मोह ही रह पाता है। पर्यायों की जो प्रतिक्षण बदलती दशा भेदरूप दृष्टिगोचर होती है, उस को भी लाँघ कर उससे भी परे जो एक अभेद द्रव्यार्थिक भाव है और जो अनादि काल से कभी अशुद्ध हुआ ही नहीं, और जब अशुद्ध हुआ ही नहीं तो फिर शुद्ध भी कहाँ रहा? इस प्रकार जो शुद्ध और अशुद्ध दोनों से परे एकमेवाद्वितीय निर्विकल्प, त्रिकाली निजस्वरूप है, वही शुद्ध निश्चय नय का स्वरूप है। शुद्धनिश्चय नय द्रव्यप्रधान होता है। क्षण-क्षण में बदलने वाली नर एवं नारकादि पर्यायों को वह ग्रहण नहीं करता । वह तो आत्मा के शुद्ध स्वरूप को ही ग्रहण करता है। जो व्यक्ति शुद्ध निश्चय नय को प्राप्त कर लेता है, उसके लिए सत्, चित् एवं आनन्द रूप आत्मा के अतिरिक्त अन्य कुछ भी इस संसार में न ज्ञातव्य रहता है, न प्राप्तव्य रहता है और न उपादेय ही रहता है।
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