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ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय ५७ स्व-पराभासी है। स्वपराभासी का अर्थ यही है, कि अपने आपको जानता हुआ दूसरों को जानने वाला ज्ञान।
मैं आपसे पहले यह कह चुका हूँ, कि आत्मा में अनन्त गुण हैं। उन अनन्त गुणों में ज्ञान भी आत्मा का एक गुण है, किन्तु यह सामान्य नहीं, एक विशिष्ट गुण है। विशिष्ट गुण इसलिए है, कि इस चेतना शक्ति के आधार पर ही आत्मा को जड़ पदार्थों से भिन्न किया जा सकता है। आत्मा के स्वरूप का परिबोध और आत्मा से भिन्न पुद्गल आदि तत्वों का परिबोध इस ज्ञान गुण के आधार पर ही किया जाता है। आत्मा की विभिन्न अवस्थाओं का परिज्ञान ज्ञान गुण से ही किया जाता है। आत्मा की शुद्ध और अशुद्ध अवस्था का परिबोध भी ज्ञानगुण के आधार पर ही होता। पाप क्या है ? पुण्य क्या है? धर्म क्या है ? अधर्म क्या है ? कर्तव्य क्या है और अकर्तव्य क्या है ? इस सबका बोध ज्ञान से ही होता है। इस दृष्टि से ज्ञानगुण सामान्य गुण नहीं, आत्मा का एक विशिष्ट गुण है। आत्मा के प्रमेयत्व आदि गुण तो आत्मा से भिन्न जड़ पदार्थ में भी रहते हैं, किन्तु ज्ञान गुण तो आत्मा का एक असाधारण गुण है, जो एकमात्र आत्मा के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं भी नहीं रहता है। ज्ञान गुण ही जड़ और चेतन की भेद-रेखा है। अभेद दृष्टि से विचार करने पर ज्ञान गुण में आत्मा के अन्य अशेष गुणों का समावेश हो जाता है। यह केवल कथन ही नहीं है, किन्तु कुछ जैन आचार्यों ने इस दिशा में प्रयत्न भी किया है। आचार्य कुन्दकुन्द उन आचार्यों में से एक हैं, जिन्होंने अभेद दृष्टि से और अद्वैत प्रधान दृष्टि से यह बताया कि ज्ञानगुण में आत्मा के अन्य समस्त गुणों का समावेश हो जाता है।
ज्ञान वस्तुओं को प्रकाशमान करता है, उस समय क्या वह आत्मा को कर्म का बन्ध कराता है, यह एक दार्शनिक प्रश्न है। समाधान है कि निम्न अवस्था में ज्ञान के साथ जो राग द्वेष का मिश्रण रहता है, चारित्रमोहनीय के उदय से ज्ञान-धारा में जो शुभ-अशुभ भाव होता है, जैनदर्शन के अनुसार वही बन्ध का हेतु है। परन्तु जब ज्ञान-धारा में न रागांश रहता है और न द्वेषांश रहता है, तब उससे कर्म का बन्ध नहीं होता। ____ मेरे कहने का अभिप्राय यह है, कि रागद्वेष के कारण जब चेतना अशुद्ध हो जाती है, तभी कर्म का बन्ध होता है। और जब ज्ञान-चेतना विशुद्ध एवं पवित्र रहती है, तब कर्म का बन्धन नहीं होता। ज्ञान का काम किसी पर राग करना, किसी पर द्वेष करना, किसी पर वैर करना अथवा किसी पर प्रेम करना नहीं है। ज्ञान का काम तो एक मात्र वस्तुओं को प्रकाशित करना ही है।
इतनी बात अवश्य है, कि जब तक उसमें चारित्र-मोह का और दर्शन-मोह का प्रभाव रहता है, तब तक यह अशुद्ध ज्ञान बन्ध का हेतु ही रहता है। परन्तु सकल-मल-कलंकरहित विशुद्ध ज्ञान कभी बन्धन का हेतु नहीं बनता है। जब राग-द्वेष का अभाव हो जाता है, तब आत्मा का ज्ञान गुण पूर्ण रूप से निर्मल और पवित्र बन जाता है। उस समय संसार के अनन्त-अनन्त जड़ चेतन पदार्थ ज्ञान में ज्ञेय रूप से प्रतिभासित होते
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