Book Title: Adhyatma Pravachana Part 2 Author(s): Amarmuni Publisher: Sanmati Gyan Pith AgraPage 42
________________ नय-वाद ४१ उदाहरण के लिए आत्मा को ही लीजिए। किसी का कहना है, कि आत्मा एक है, और किसी का कहना है कि आत्मा अनेक है। यहाँ पर आप देखते हैं कि एकत्व और अनेकत्व परस्पर विरोधी हैं। नयवाद इस विवाद का समन्वय करता हुआ कहता है कि आत्मा एक भी है और अनेक भी है। द्रव्य-दृष्टि से आत्मा एक है और प्रदेश-दृष्टि से अथवा गुणपर्याय दृष्टि से एक आत्मा अनेक है। अथवा व्यक्ति की अपेक्षा आत्मा अनेक हैं और स्वरूप की दृष्टि से आत्मा एक है। इसी प्रकार आत्मा के सम्बन्ध में नित्यत्व और अनित्यत्व आदि अनेक विवाद हैं, जिनका वास्तविक समाधान नयवाद के द्वारा ही किया जा सकता है। सामान्य रूप से मनुष्य की ज्ञान-वृत्ति अधूरी होती है। मनुष्य में अस्मिता एवं अभिनिवेश के कारण अपने को ही ठीक मानने की भावना बहुत अधिक होती है। इसका फल यह होता है, कि जब वह किसी विषय में किसी प्रकार का विचार करता है, तब अपने उस विचार को ही वह अन्तिम, पूर्ण तथा परम सत्य मान लेता है। इसका अर्थ यह होता है कि वह दूसरे व्यक्ति के दृष्टिकोण को नहीं समझ पाता। वह अपने अल्प तथा आंशिक ज्ञान को ही पूर्ण मान बैठता है। यही कारण है कि संसार में संघर्ष और विवाद खड़े हो जाते हैं। दर्शन के क्षेत्र में हम देखते हैं, कि एक दर्शन आत्मा आदि के विषय में अपने माने हुए पुरुष-विशेष के किसी एकदेशीय विचार को सर्वदेशीय सत्य मान लेता है। फिर उसके विरोधी प्रतिभासित होने वाले सत्य विचार को भी वह झूठा ही समझता है। इसी प्रकार दूसरा दर्शन पहले को और फिर दोनों मिल कर तीसरे को झूठा समझते हैं। फलस्वरूप समता के स्थान पर विषमता और विचार के स्थान पर विवाद खड़ा हो जाता है। विचारों की इस विषमता को दूर करने के लिए तथा परस्पर के विवाद को दूर करने के लिए भगवान महावीर ने नय-मार्ग प्रतिपादित किया है। नयवाद यह कहता है, कि प्रत्येक तथ्य को और प्रत्येक विचार को, अनेकान्त की तुला पर तोलना चाहिए। मैं आपसे यह कह रहा था, कि नय दर्शनशास्त्र का एक गम्भीर विषय है। इसे समझने के लिए समय भी चाहिए और बुद्धिबल भी चाहिए। मैं अधिक गहराई में न जाकर उसके स्वरूप का संक्षेप में ही प्रतिपादन कर रहा हूँ। संक्षेप में नय के दो भेद हैंद्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक। संसार में छोटी-बड़ी सब वस्तुएँ एक दूसरे से सर्वथा भिन्न भी नहीं हैं और एक दूसरे से सर्वथा अभिन्न भी नहीं हैं। विश्व की प्रत्येक वस्तु में कुछ समानता भी है और कुछ भिन्नता भी है। इसी आधार पर जैन दर्शन में प्रत्येक वस्तु को सामान्य-विशेषात्मक अथवा उभयात्मक कहा जाता है। मानवी बुद्धि कभी वस्तु के सामान्य की ओर झुकती है, तो कभी विशेष की ओर। जब वह वस्तु के सामान्य अंश की ओर झुकती है, तब उसे द्रव्यार्थिक नय कहा जाता है और जब मनुष्य की बुद्धि वस्तु के विशेष धर्म की ओर झुकती है, तब उसे पर्यायार्थिक नय कहा जाता है। द्रव्यार्थिक नय के तीन भेद और पर्यायार्थिक नय के चार भेद होते हैंइस प्रकार नय के सात भेद हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only: www.jainelibrary.orgPage Navigation
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