Book Title: Adhyatma Pravachana Part 2 Author(s): Amarmuni Publisher: Sanmati Gyan Pith AgraPage 41
________________ ४० अध्यात्म-प्रवचन के वास्तविक स्वरूप को समझा नहीं जा सकता। मुख्य प्रश्न यह है, कि नय क्या वस्तु है ? उसका लक्षण क्या है ? उसका स्वरूप क्या है ? और उसकी परिभाषा क्या है ? उक्त प्रश्नों के उत्तर में कहा गया है कि प्रमाण से गृहीत अनन्तधर्मात्मक वस्तु के किसी भी एक धर्म का मुख्य रूप से ज्ञान होना, नय है। नय की परिभाषा करते हुए यह भी कहा गया है, किसी भी विषय के सापेक्ष निरूपण को नय कहा जाता है। किसी एक ही वस्तु के सम्बन्ध में भिन्न-भिन्न मनुष्यों के भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण हो सकते हैं। ये दृष्टिकोण ही नय हैं- यदि वे परस्पर सापेक्ष हैं, तो। विभिन्न विचारों के वर्गीकरण को भी नय कहा जाता है अथवा विचारों की मीमांसा को नय कह सकते हैं। एक विद्वान ने यह कहा है कि - परस्पर विरुद्ध विचारों में समन्वय स्थापित करने वाली दृष्टि को नय कहा जाता है। नयों के स्वरूप के प्रतिपादन से पूर्व यह जान लेना भी आवश्यक है, कि नयों की सीमा और परिधि क्या है ? नैगम नय का विषय सबसे अधिक विशाल है, क्योंकि वह सामान्य और विशेष दोनों को ग्रहण करता है। संग्रहनय केवल सामान्य को ग्रहण करता है । अतः इसका विषय नैगम से कम है। व्यवहार नय का विषय संग्रह से भी कम है, क्योंकि यह संग्रहनय से संगृहीत वस्तुओं में व्यवहार के लिए भेद डालता है । ऋजुसूत्र नय भूतकाल और भविष्य काल को छोड़कर केवल वर्तमान काल की पर्याय को ही ग्रहण करता है। शब्द-नय वर्तमान काल में भी लिंग, संख्या और कारक आदि के कारण भेद देता है। समभिरू नय व्युत्पत्तिभेद के कारण वाच्यभेद को स्वीकार करके चलता है। एवम्भूत नय उस-उस क्रिया में परिणत वस्तु को उस उस रूप में ग्रहण करता है। यह है नयों की अपनी-अपनी सीमा और अपनी-अपनी परिधि । प्रत्येक नय अपनी ही परिधि में रहता है। मैं आपसे य के विषय में चर्चा कर रह था। मैंने अभी आपसे यह कहा था, कि किसी विषय के सापेक्ष निरूपण को नय कहते हैं। किसी एक वस्तु के विषय में भिन्न-भिन्न मनुष्यों के अथवा देश-काल-परिस्थिति आदि की अपेक्षा से एक व्यक्ति के भी अलग-अलग विचार हो सकते हैं। मनुष्य के विचार असीमित और अपरिमित होते हैं। उन सब का पृथक-पृथक प्रतिपादन करना सम्भव नहीं है। अपने प्रयोजन के अनुसार अतिविस्तार और अतिसंक्षेप दोनों को छोड़कर मध्यम दृष्टि से ही नयौं के द्वारा विचारों का प्रतिपादन किया जाता है। नय के स्वरूप का प्रतिपादन करते हुए कहा गया है, कि जिससे श्रुत प्रमाण के द्वारा गृहीत पदार्थ का एक अंश जाना जाए, वक्ता के उस अभिप्राय विशेष को नय कहते हैं। नय के निरूपण का अर्थ है- विचारों का वर्गीकरण । नयवाद का अर्थ है-विचारों की मीमांसा । वास्तव में परस्पर विरुद्ध दीखने वाले, किन्तु यथार्थ में अविरोधी विचारों के मूल कारणों की खोज करना ही इसका मूल उद्देश्य है । इस व्याख्या के आधार पर यह कहा जा सकता है, कि परस्पर विरुद्ध दीखने वाले विचारों के मूल कारणों का शोध करते हुए, उन सब का समन्वय करने वाला शास्त्र नयवाद है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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