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४४ अध्यात्म-प्रवचन तौलिया भी प्रस्तुत कर देता है। यहाँ पर 'दातुन' इतना ही कहने से समग्र सामग्री का संग्रह हो गया है।
संग्रह नय के दो भेद हैं-पर संग्रह और अपर संग्रह। सत्ता मात्र अर्थात् द्रव्यमात्र को ग्रहण करने वाला नय पर संग्रह नय कहलाता है, क्योंकि यह नय सत् या द्रव्य कहने से जीव और अजीव के विशेष भेदों को न मानकर केवल द्रव्य मात्र का ग्रहण करता है। जीव और अजीव आदि अवान्तर सामान्य को ग्रहण करने वाला और उनके भेदों की उपेक्षा करने वाला-अपर संग्रह नय है। जैसे जीव कहने से सब जीवों का ग्रहण तो हुआ, किन्तु अजीव द्रव्यों का ग्रहण नहीं हो सका। अजीव कहने से धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश, काल आदि का तो ग्रहण हो जाता है, परन्तु जीव का ग्रहण नहीं होता। संग्रह नय का अर्थ है-संग्रह करने वाला विचार।अतः इसके अपर संग्रह में भी भेद की नहीं, अभेद की ही प्रधानता रहती है। ____सात नयों में तीसरा नय है-व्यवहार। लौकिक व्यवहार के अनुसार विभाग करने वाले विचार को व्यवहारनय कहते हैं। जैसे जो सत् है, वह द्रव्य है अथवा पर्याय। जो द्रव्य है उसके जीव आदि छह भेद हैं। जो पर्याय है उसके दो भेद हैं-सहभावी और क्रमभावी। इसी प्रकार जो जीव है उसके अनेक भेद हैं। जैसे संसारी और मुक्त आदि-आदि।सब द्रव्यों और उनके विषय में सदा भेदानुसारी वचन-प्रवृत्ति करने वाले नय को व्यवहार नय कहते
यह नय सामान्य को नहीं मानता, केवल विशेष को ही ग्रहण करता है, क्योंकि लोक में घट आदि विशेष पदार्थ ही जल-धारण आदि क्रियाओं के योग्य देखे जाते हैं। केवल सामान्य नहीं। रोगी को औषधि दो, इतना कहने से समाधान नहीं है। समाधान के लिए आवश्यक है कि औषधि का विशेष नाम बताया जाय कि अमुक औषधि दो। यद्यपि निश्चय नय की अपेक्षा से घट में पाँच वर्ण, दो गन्ध, पाँच रस और आठ स्पर्श होते हैं, किन्तु साधारण लोग उस घट को लाल, काला या पीला ही कहते हैं। व्यवहार नय से कोयल काली है, परन्तु निश्चय नय से उसमें पाँच वर्ण, दो गन्ध, पाँच रस और आठ स्पर्श पाए जाते हैं। व्यवहार नय में उपचार होता है। बिना उपचार के व्यवहार नय का प्रयोग नहीं किया जा सकता।
व्यवहार नय के दो भेद हैं-सामान्य भेदक और विशेष भेदक। सामान्य संग्रह में दो भेद करने वाले नय को सामान्य भेदक व्यवहार नय कहते हैं, जैसे द्रव्य के दो भेद हैं-जीव
और अजीव। विशेष संग्रह में अनेक भेद करने वाला विशेष भेदक व्यवहार नय कहलाता है। जैसे जीव के चार भेद-नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव।
सात नयों में चतुर्थ नय है-ऋजुसूत्र । वर्तमान क्षण में होने वाली पर्याय को प्रधान रूप से ग्रहण करने वाले नय को ऋजुसूत्र नय कहते हैं। जैसे 'मैं सुखी हूँ।' यहाँ पर सुख पर्याय वर्तमान समय में है। ऋजु-सूत्र नय वर्तमान क्षणस्थायी सुख पर्याय को प्रधान रूप से विषय
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