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प्रमाण-वाद २९ प्रभाचन्द्र, वादिदेवसूरि और आचार्य हेमचन्द्र इस दिशा में विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। परन्तु उपाध्याय यशोविजय ने ज्ञान-बिन्दु, जैनतर्कभाषा और नयोपदेश जैसे ग्रन्थ देकर जैनदर्शन को एक अपूर्व देन दी है। दर्शन और न्याय के क्षेत्र में उपाध्याय यशोविजय जी की उद्भावना का सदा आदर और सत्कार होता रहेगा।
मैंने आपके सामने प्रमाण के लक्षण के सम्बन्ध में मुख्य-मुख्य बातें कही हैं, प्रमाण के सम्बन्ध में बहुत गहनता और सूक्ष्मता में उतरना यहाँ अभीष्ट नहीं है, किन्तु प्रमाण के सम्बन्ध में एक बात और जान लेना आवश्यक है, और वह है-प्रमाण का प्रमाणत्व। प्रमाण के द्वारा जिस वस्तु का जिस रूप में बोध होता है, उस वस्तु का उसी रूप में प्राप्त होना-प्रमाण का प्रमाणत्व है। तर्क-शास्त्र में इसको प्रामाण्यवाद कहते हैं। प्रामाण्य का क्या लक्षण है ? उक्त प्रश्न के उत्तर में कहा गया है, कि प्रमाण के द्वारा प्रतिभात विषय का अव्यभिचारी होना, प्रामाण्य है। अथवा प्रमाण के धर्म को प्रामाण्य कहते हैं। प्रमाण का प्रमाणत्व क्या है ? इस विषय में वादिदेवसूरि ने स्वप्रणीत ‘प्रमाणनयतत्वालोक' ग्रन्थ में कहा है-प्रमेय पदार्थ जैसा है, उसे वैसा ही जानना-यही प्रमाण का प्रमाणत्व है। इसके विपरीत प्रमेय पदार्थ को अन्यथा रूप में जानना-यही प्रमाण का अप्रमाणत्व है। प्रमाणत्व
और अप्रमाणत्व का यह भेद बाह्य पदार्थ की अपेक्षा समझना चाहिए। क्योंकि प्रत्येक ज्ञान अपने स्वरूप को तो वास्तविक रूप में ही जानता है। स्वरूप की अपेक्षा सब ज्ञान प्रमाणरूप होते हैं। प्रमाण में प्रमाणत्व अथवा अप्रमाणत्व बाह्य पदार्थ की अपेक्षा से ही आता है। प्रमाण के प्रमाणत्व को निश्चय करने वाली कसौटी क्या है ? इस विषय में जैनदर्शन का कथन है, कि प्रमाण के प्रमाणत्व का निश्चय कभी स्वतः होता है, कभी परतः होता है। अभ्यास-दशा में स्वतः होता है और अनभ्यास दशा में परतः होता है। मीमांसक स्वतःप्रामाण्यवादी है। वह कहता है कि प्रत्येक ज्ञान प्रमाण रूप ही होता है। ज्ञान में जो अप्रामाण्य आता है, वह बाह्य दोष के कारण से आता है। मीमांसा दर्शन में प्रामाण्य की उत्पत्ति और ज्ञप्ति स्वतःमानी गई है, और अप्रामाण्य की परतः। इसको तर्कशास्त्र में स्वतः प्रामाण्यवाद कहा जाता है। नैयायिक परतःप्रामाण्यवादी है। वह कहता है, कि ज्ञान प्रमाण है अथवा अप्रमाण है? इसका निर्णय बाह्य पदार्थ के आधार पर ही किया जा सकता है। न्याय-दर्शन में प्रामाण्य और अप्रामाण्य दोनों की कसौटी बाह्य पदार्थ माना गया है। ज्ञान स्वतः न तो प्रमाण है और न अप्रमाण। यह परतः प्रामाण्यवाद है। सांख्य-दर्शन में प्रामाण्य और अप्रामाण्य दोनों स्वतः हैं। सांख्य की यह मान्यता नैयायिक के विपरीत है। क्योंकि नैयायिक प्रामाण्य और अप्रामाण्य दोनों को परतः मानता है, जबकि सांख्यदर्शन दोनों को स्वतः मानता है। बौद्ध दर्शन में प्रामाण्य अप्रामाण्य दोनों को अवस्थाविशेष में स्वतः और अवस्थाविशेष में परतः माना गया है। इस प्रकार हम देखते हैं, कि प्रमाण के प्रमाणत्व को लेकर, किस प्रकार दार्शनिकों में विचार-भेद एवं मतभेद रहा है।
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